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________________ - २०१ 1 तिनकी धुनि है ओंकाररूप । निरभक्षरमय महिमा अनूप । दश अष्ट महाभाषा समेतं । लघु भाषा सात शतक सुचेत ॥४॥ सो स्यादवादमय सप्त भंग । गणधर गूँथे बारह सु अंग । रवि शशि न हरै सो तमहराय । सो शास्त्र नमों बहु प्रीति ल्याय ॥५ -गुरु आचारज उवझाय साध । तन नगन रतनत्रयनिधि अगाध ! संसारदेह वैराग धार । निरवांछि तपैं शिवपद निहार ॥ ६ ॥ गुण छत्तिस पच्चिस आठवीस । भवतारनतरन नहाज ईस । गुरुकी महिमा बरनी न जाय। गुरु नाम जप मनवच काय ॥७॥ सोरठा-कीने शक्ति प्रमान, शक्ति विना सरधा घरै । *** जैनसिद्धांतसंग्रह ! 'द्यानत' सरधावान, अजर अमरपद भोगवै ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । सूचना- आगे जिस भाईको निराकुलता व स्थिरता हो, वह नीचे लिखे अनुसार बीस तीर्थंकरोंकी भाषा पूना करै । यदि स्थिरता नहीं हो, तो इस पूजा के आगे पत्र २०९ में जो अर्थ लिखा है, उसको पढ़कर अर्ध चढ़ावै । (५) की तीर्थकर पूजा भाषा । दीप अढ़ाई मेरुपन, अब तीर्थंकर बीस । तिन सबकी पूजा करूं, मनवचतन घरि सीस ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरा ! अत्र अवतर अवतर ! i. ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरा ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः 1... ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरा ! मंत्र मम सन्निहितो भव भव । •
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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