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________________ जैन सिद्धांतसंग्रह । [·?00 २२ अदर्शन परीषह - मैं चिरकाल घोर तपकीनों अजों ऋद्धि अतिशय नहीं जागे । तपबल सिद्धं होत सब सुनियत सो कुछ बात झूठसी लांगे ॥ यों कदापि चितमें नहीं चिंतत समकित शुद्ध शांति रस पागै । सोई साधु अदर्शन विनई ताक दर्शनसे अघ भागे ॥ २४ ॥ किस २ कर्मके उदयसे कौन २ परीषह होती हैं ज्ञानावरणीतें दोइ प्रज्ञा अज्ञान होई एक महा मोहतें अदर्शन बखांनिये । अन्तराय कर्मसेती उपजै अलाभ दुख सप्त चारित्र मोहनी केवळ जानिये "नगन निपव्या नारि मान सन्मानगारि यांचना अरति सब ग्यारह ठीक ठानिये | एकादश बाकी रहीं वेदना उदयसे कहीं बाईस परीषह उदय ऐसे उर आनिये ॥ अडिल्ल एकबार इनमाहिं एक मुनि के कही । सब उनी उत्कृष्ट उदय सही || आसन शयन विज्ञाय दाय इन माहिंकी । शीत उप्गमैं एक तीन य नाहिंकी ॥ २६ ॥ "
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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