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________________ जैनसिद्धांत संग्रह - बन चाले भूखे हुए, नामन वृक्ष निहार ॥ ३ ॥ कृष्ण वृक्ष काटन चहे भील जुकाटन लघु ढाली कापोत उर पीठ सर्व फल पद्म चहै फल पक्कको, तोडूं खाऊं शुक्ल चहें घरती गिरे, तूं पक्के निरवार ॥ ५ ॥ जैसी जिसकी लेश्या, तसा बांचे कर्म । श्री सद्गुरु संगति मिले, मनका जावे मर्म ॥ ६ ॥ १६४ ] डाल | माल ॥ ॥ सार । (३२) द्वादशानुक्रेक्षा । (पं. मुन्नालालजी विशारद महरोनी कृत ) उद्बोधन | भवदाहसे संतप्तजनको शांतिकारी भावना | इन्द्रिय विषय तन, भोगसे वैराग्यका भावना || मुनि चित्त प्यारी, कुगति हारी, केयकारी भावना | "मणि" हो निराकुल चित्तभावहु. नित्य बारह भावना ॥ उत्तेजन । हे आत्मन् ! तन, घन विनश्वर क्या तुझे दिखता नहीं ? १ यमसे ग्रसित क्या जीवको, कोई शरण दिखता कहाँ ? २ - क्या है सुखी निश्चिन्त कोई इस दुखद सुख स्वार्थ के साथी स्वजन, क्या दीखते संसार में ? ६ दुख घारमें ? 8 जानता । ५ परद्रव्य तुझसे मित्र हैं तू एक मलमूत्रमय दुर्गंध तनको रूप इनको पना मानता ६ !
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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