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________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [१६५ करता निरन्तर योगसे, आश्रव शुमाशुभ कर्मका ! ७ नहिं ध्यान है कुछ भी तुझे, संवर करन व्रत, धर्मका ! ८ में पूर्व संचितं कर्म ते बिन निर्जरा नाही कौ । ९ . समता विना तू नित्य भ्रमता हो दुखी तिहुंलोको । १० सब हैं सुलभ नगमें सु दुर्लम ज्ञान-सम्यक् पावना । ११ सुखकर सुधासम धर्म लख "मणि नित्य भावहु भावना । १९ पारम्बार चिन्तवनधन, विमव, जीवन, राज्य, परिजन, सकल अथिर असार हैं। इन्द्रिय जनित-सुख स्वमवत् क्षण सुखद पुन दुखकार है। यौवन जरासे ग्रसित है 'अरु मोग रोगोंसे भरे। मग इन्द्रजालसमान है "मणि' ! भूल क्यों इसमें परे । (अनित्य) 'छंह खण्डपति अरु इन्द्रका भी पतन नब अनिवार है। तब रोक सक्ता कौन तुझको मृत्युसे, परिवार है॥ जगगहनवनमें कर्म हत जनको नहीं कोई शरण। निजमाव निजको हैं शरण 'मणि" धर्म वा श्री गुरु शरण ॥ २ तिय, पुत्र विन कोई दुखी, तन रोगसे कोई दुखी। 'निर्धन बिना धनके दुखी, धनवान तृष्णासे दुखी ॥ चहुँगति विपतिमय जगतमें “मणि" चाहसे सब हैं दुखी। -तन चाह निन कल्याणमें लागे सदा वे ही सुखी ॥ (संसार) ३ -उत्पत्तिमें अरु मरणमें सुख, दुःख, योग, वियोगमें । यह है अकेला जीव "मणि" दारिद्र, रोग सुमोगमें ॥ . जाता अकेला. नरंकमें सुरसुख अकेला लटता। करता अकेला कर्म अरुं बषता अकेला छूटनाः।। (एकत्व)...
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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