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________________ 'जैनसिद्धांतसंग्रह। म १९५ जलचर मारनेका फल-... अमि कुंडमें रोपके, गलमें सकल डार। . दंड खड़गले हाथमें, मारे तहं भयकार ॥ निर्दयी जाल बिछायके, पकड़ मच्छ अतिदीन । चरित ताको हो मगन, पड़ते नर्क कमीन ॥ पक्षी मारनेका फलपंखी मार पडयो नरक, कूम्भी पाकन मांहि । ऊपर कौए नोंचते. भीतर पीड़ा पाहिं ।। शिकार करनेका फलहरिण शशादिक निवल मे, जंतु दीन अति भूर । तिनसे दिल बहलावको, करत शिकार जो कर ॥ 'तिन पुरुषनकी नरकमें, लखो दुर्दशा हाय । व्याघ्रादिकं हिंसक पशू, नोंच २ के खाय || कसाई कर्मका फलकरें कसाई कूरने, हिंसा कर्म अघोर । कुम्भीमें ते ऊपनें, करें भयंकर शोर ।। . घुना धान्य व्यवहारका फलवीघा अन्न अशोधकें, जो कू? दिनरात । अर खावें होकर मगन, नर्क महा दुख पात ॥. रात्रिको भट्टी जलानेका फलभट्टी रात्रि जलायकें, करें विविध पकवान । जीव अनंता गिर मरे, बांधे पाप : अजान ॥
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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