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________________ १५४] जैनसिदांतसंग्रह। . मधु भक्षणके पापत, परै नरकमें आप। मुंजै दुख चिरकाल लो, लहै अधिक सन्ताप ॥५॥ मधु भक्षण तें नीवकी, दया दूर भनि जात । पाप पंक संयोगते, सम्यग् दरश नशात ॥६॥ हुक्का, गांजा, भांग पीनका फलअगनीको अंगार ठे, गांन तमाखू चप्स । घरी भरी पीयी चिलम, हुसपै घर हर्ष । ते नरकनिकी भूमिम, उपजें घाणत अघोर । तांवो खूब तपायक प्यावे असुर कठार ।। आत्मघातका फलआतमधातीको लखा, कैसो होत हवाल । हनवेको हुंकरत है नारकि अति विकराल | मनुष्यघातका फलपि दे अयवा और विधि, करके क्रोष प्रचण्ड । जिन मानुष मारे यहां, तिनके है शतखण्ड । गर्भपातका फलकामी हो मिसने करो, परनर ते व्यभिचार । गर्म भयो तब लाज वश, कियो पात अधकार ।। तिनकी देखो नरकमें, होत दशा है कौन । ले त्रिशूल तन छेदिया, हाय २ दुख मौन । मेंढा वधका फलभेदाप जिसने यहां छुरी चलाई क्रूर । है करोत काटें लखो, विनको दुख भरपूर ॥
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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