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________________ जैन सिद्धान्त दीपिका ६ E. आदि दोष उत्पन्न होते है, अतः इन ( धर्म और अधर्म ) का अस्तित्व निःसन्देह सिद्ध है। अलोक में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय नहीं है अतः वहां पर जीव और पुद्गल नहीं जा मत्रने । अवगाह देने वाले द्रव्य को आकाश कहते है। अवगाह का अर्थ है अवकाश या आश्रम | आकाश अवगाह लक्षण वाला है। दिशाए आकाश के हो विभाग है। ये स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है। आकाश के दो नांव और अनीक । जो आकाश द्रव्यात्मक होता है, उगे लोक कहते है। वर लोक नौका परिमित और निष्क आकार वाला है। वह तीन प्रकारका निरखा, ऊचा और नीचा । निरखा लोक अठारह सौ योजन ऊना और अगमय-द्वीप-गमुद्रपरिमाण विस्तृत है। ऊना लोक कुछ कम गान रज्जु -प्रमाण है । नीचा लोकमान रज्जू से कुछ अधिक प्रमाण वाला है । ९. अमध्ययोजन की रज्जु कहते है । ०. सुप्रतिष्ठक आकार का अर्थ है त्रिशरावमम्पुटाकार । एक मिकोग उल्टा, उस पर एक सीधा और उस पर फिर एक उल्टा रखने मे जो आकार बनना है, उसे त्रिशगव-सम्पुटाकार कहते है ।
SR No.010307
Book TitleJain Siddhant Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1970
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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