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________________ जैन सिद्धान्त दीपिका होती है। उसमें विणेषण के सामर्थ्य कर' और व्यतिकर.' दोप रहित व्यवच्छेदक धर्म से प्रतिनियत अर्थ के प्रतिपादन की शक्ति को न्यस्त या निहित किया जाता है, वह निक्षेप है। अप्रस्तुन अर्थ का अपाकरण और प्रस्तुत अर्थ का प्रतिपादन, यह निक्षेप का प्रयोजन' है। ५. निक्षेप के चार प्रकार हैं: १. नाम २. म्थापना ४. भाव वस्तु-विन्यास के जितने क्रम है उतने ही निक्षेप होते हैंयह ममग्र दष्टिकोण है। मंक्षिप्त दष्टि के अनुमार निक्षेग चार होने है। वे अवश्य करणीय है, जमे कहा है जहां जिनने निक्षेप जात हों वहां उन मभी (निक्षेपों) का उपयोग किया जाए और जहां बहुत निक्षेप जान न हों वहां कम से कम निक्षेप-चनुष्टघ (नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव) का प्रयोग अवश्य किया जाए। १. मवको एक माथ प्राप्ति को मंकर कहा जाता है। २. एक-दूसरे के विषय का परम्पर में मिल जाने की व्यतिकर कहा जाता है। ३. अन्यथुन (अव्युत्पन्न) के लिए दोनों प्रयोजनों में निक्षेप किया जाता है। वहुश्रुत (पूर्णव्युत्पन्न) और मध्यमथुन (अंगव्युत्पन्न), ये दोनों मंणयालु हों तो उनके मंणय-निराकरण के लिए तथा व विपर्यस्त हो तो प्रस्नुन अर्थ का अवधारण करने के लिए निक्षेप किया जाता है।
SR No.010307
Book TitleJain Siddhant Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1970
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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