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________________ न सिद्धान्त दीपिका १६५ और अणुव्रत ये दो मार्ग बतलाए गए है। बत: धर्म सर्वमाधारण है, इसमें कोई दोष नहीं आता। १४. गांव, नगर, राष्ट्र, कुल, जानि, युग आदि में विद्यमान आचार और व्यवस्था को लोकधर्म कहते है। गांव आदि में औचित्य के द्वारा धनोपार्जन, व्यय, विवाह, भोज आदि प्रथाओं का और पारस्परिक सहयोग आदि का जो आचरण किया जाना है. उमका नाम आचार है। गांव, नगर आदि के हितों की रक्षा के लिए जो उपाय काम में लाए जाने हैं, उनका नाम व्यवस्था है। यह अनेक प्रकार की होती है, जैसे-कुटुम्ब-व्यवस्था, ममाज-व्यवस्था, राष्ट्र-व्ययम्पा. अन्तर्राष्ट्र-व्यवस्था। इन दोनों -आचार और व्यवस्था को लोकधर्म--लौकिकव्यवहार कहने है । मागम में भी ऐसी परिभाषा उपलब्ध होती है, जैसे ... 'प्रामधर्म, नगग्धम, गदधर्म, कुलधर्म, गणधर्म' इत्यादि। लोकधर्म में भी सचिन अहिमा आदि का आचरण होता है। उसकी अपेक्षा मे वह धर्म में भिन्न नहीं किंतु उसमें भोगोपवर्धक वस्तुओं का व्यवहार होता है, उस अपेक्षा से वह धर्म में भिन्न है। १५. प्रेयम्-संपादन को भी लोकधर्म कहा जाता है। प्रेयम् के संपादन में भौतिक उदय होता है, इसलिए यह भी लौकिक धर्म की कक्षा में ममाविष्ट है। इति देव-गुरु-धर्म-स्वरूप निर्णय
SR No.010307
Book TitleJain Siddhant Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1970
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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