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________________ जैन सिद्धान्त दीपिका १५१ आहारक लब्धि से निष्पन्न शरीर को आहारक कहते हैं । यह चतुर्दश- पूर्वधर मुनि के होता है। तेजोमय परमाणुओं से निप्पन्न शरीर को तंजस कहते हैं । यह तेजीलब्धि, दीप्ति और पाचन का कारण होता है । कर्म समूह से निप्पन्न अथवा कर्म विकार को कार्मण शरीर कहते हैं । ये दोनों सब मंसारी जीवों के होते हैं। २६. पांचों शरीर उत्तरोतर सूक्ष्म और प्रदेश ( स्कन्ध) परिमाण से असंख्य गुण होते हैं । २७. तेजस और कार्मण प्रदेश - परिमाण में अनन्नगुण होते हैं । २८. तेजस और कार्मण दोनों अन्तरालगति में भी होने हैं । अन्तरालगति दो प्रकार की होती है : १. ऋजु २. विग्रह जिस गति में एक समय लगे, उसे ऋजु और जिसमें दो, तीन एवं चार समय लगे, उसे विग्रहगति कहते हैं । विग्रहगति में दो समय तक अनाहारक अवस्था रहती है । अनाहारक अवस्था में सिर्फ एक कार्मणयोग ही होता है ।
SR No.010307
Book TitleJain Siddhant Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1970
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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