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________________ १४६ जैन सिद्धान्त दीपिका २१. अयोगी के कर्मबन्ध नहीं होता। २२. अकेवली को छमस्थ कहते हैं। घात्यकर्म के उदय का नाम छद्म है। इस अवस्था में रहने वाले को छद्मथ कहते हैं। यह अवस्था बारहवें जोवस्थान तक रहती है। २३. ये चौदह जोवस्थान शरीरधारी जीवों के होते हैं। अशरीरी जीवों में विशुद्धि की तरनमना नहीं होती। ये जीवस्थान विशुद्धि की नग्तमना के आधार पर किए गए हैं. इसलिए ये मशरीरी जीवों के ही होते है । २४. जिसके द्वारा पोद्गनिक मुख-दुःख का अनुभव किया जाता है, उसे शरीर कहते हैं। २५. शरीर पांच प्रकार के होते हैं : १. औदारिक ८. नजम २. क्रिय ५. कामण ३. आहारक म्थल पुद्गलों मे निष्पन्न और ग्म आदि धानुमय गरीर को औदारिक कहते है । यह मनुष्य और नियंञ्चों के होता है। जो भांति-भांनि के Fप करने में ममर्थ हो, उस वैक्रिय कहते हैं । यह नारक, देव, वैक्रियल ब्धि वाले मनुष्य और तियंञ्च तथा वायुकाय के होता है।
SR No.010307
Book TitleJain Siddhant Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1970
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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