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________________ जैन सिद्धान्त दीपिका १४५ करता हुआ बारहवें जीवस्थान में सर्वथा क्षीणमोह हो जाता है। उपशमश्रेणि वाला स्वभाव से ही प्रतिपाती होता है - वह पीछे लौट जाता है | क्षपकश्रेणि वाला अप्रतिपाती होता है - वह ऊर्ध्वगामी हो जाता है । १५. जिसके चार घात्यकर्म क्षीण हो जाते हैं और जो प्रवृनियुक्त होता है उसे सयोगकेवली कहा जाता है । १६. जिसे शैलेशी (सर्वया निष्प्रकंप) दशा प्राप्त होती है उमं अयोगी केवली कहा जाता है । १७. जीवस्थानों की स्थिति के अनेक विकल्प हैं । J पहला जीवस्थान अनादिअनन्न, अनादिमान्न और मादिमान्त है। दूसरे की छह आवलिका की, चौथे की कुछ अधिक नेतीस सागर को पांचवें छठे और तेरहवें की कुछ कम फोड़ पूर्व की स्थिति होती हैं। चौदहवें की स्थिति पात्र हस्वाक्षर अ, इ, उ, ऋ, लृ के उच्चारणकाल जितनी होती है। शेष सव जीवस्थानों की स्थिति अन्तर्मन की होती है । १८. सम्यग्दृष्टि आदि जीवों के क्रमणः असंख्य गुण अधिक निर्जरा होती है ―
SR No.010307
Book TitleJain Siddhant Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1970
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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