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________________ जन सिद्धान्त दीपिका ६७ ७. वात्सल्य ८. प्रभावना निःशंकित-निष्कांक्षित-निविचिकित्सित-लक्ष्य और उसकी निप्पत्ति के साधनों के प्रति स्थैर्य । अमूढ दृष्टि-जिन प्रवचन में कौशल। उपबृंहण-स्थिरीकरण-तीर्थसेवा-तीर्थ की वृद्धि और उसका स्थिरीकरण । वात्मल्य-भक्ति। प्रभावना-जिन प्रवचन की प्रभावना करना। १२. सावद्यवृत्ति के प्रत्याख्यान को विरति कहते हैं। पापकारी प्रवृत्ति और अन्तानसा इन दोनों को सावद्यवृत्ति कहते हैं। इनका त्याग करना विरति संवर है । वह पांचवें जीवस्थान में अपूर्ण और छठे से चौदहवें तक पूर्ण होता है। १३. अध्यात्मलीनता को अप्रमाद कहा जाताहै । अध्यात्मलीनता का अर्थ है -- स्वभाव के प्रति पूर्ण लागरूकता। अप्रमाद मंवर सातवें जीवस्थान से चौदहवें सक होता है। १४. क्रोध आदि के अभाव को अकषाय कहते हैं। अपाय मंबर वीतराग-अवस्था में ग्यारहवें जीवस्थान में चौदहवं जीवस्थान तक होता है। १५. अप्रकम्प अवस्था को अयोग कहते हैं। अयोग संवर शैलेशी-अवस्था (शल+ईश =शैलण-- मेरु,
SR No.010307
Book TitleJain Siddhant Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1970
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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