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________________ जन सिदान्त दीपिका ८५ २०. कषाय चार प्रकार का होता है--क्रोध, मान, माया और लोभ । २१. इनमें से प्रत्येक के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन-ये चार-चार भेद होते हैं। ये अनन्तानुबन्धी बादि चारोंकमयः सम्यक्त्व, देश-विरति (श्रावकपन), सर्वपिरति (साधुपन) और यथाज्यात चारित्र (वीतरागता) के बाधक होते हैं। इनके उदाहरण इस प्रकार हैं-चार प्रकार का क्रोध क्रमशः पत्थर, भूमि, बालू और जम की रेखा के समान होता है। चार प्रकार का अभिमान क्रमशः पत्थर, अस्पि, काष्ठ, और लता-स्तम्भ के समान होता है। पार प्रकार की माया क्रमशः बांस की बड़, मेंढ़े का सींग, चलते हुए बैल के मूत्र की धारा और छिलते हुए बांस की छाल के समान होती है। .. चार प्रकार का लोभ क्रमशः कृमिरेशम, कीचड़, गाड़ी के खजन और हल्दी के रंग के समान होता है। २२. शरीर, वचन एवं मन के व्यापार को योग कहते हैं। वीर्यान्तराय कर्म के क्षय-क्षयोपशम से तथा शरीर नामकर्म के उदय से निष्पन्न और शरीर, भाषा एवं मन की वर्गणा (सजातीय पुद्गल समूह) के संयोग से होनेवाले शरीर, वचन एवं मन की प्रवृत्तिरूप बात्मा के परिणमन को योग कहते हैं ।
SR No.010307
Book TitleJain Siddhant Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1970
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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