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________________ द्वारका-दाह सहस्राम्रवन मे भगवान अरिष्टनेमि की वैराग्यपरक धर्मदेशना मुनकर कृष्ण विचारने लगे-धन्य है, जालि, मयालि, उवयालि आदि यादवकुमार जिन्होने युवावस्था मे सयम ग्रहण करके आत्म-कल्याण का पथ ग्रहण किया और एक मैं हूँ, जो काम-भोगो से विरक्त ही नही हो पा रहा हूँ। यो तो अर्द्धचक्री हूँ किन्तु प्रव्रज्या मे कितना असमर्थ ? अन्तर्यामी भगवान ने कृष्ण के हादिक भावो को जानकर कहा -कृष्ण । सभी वासुदेव सदैव कृत-निदान होते हैं अत. वे सयम पथ पर चल ही नही सकते । । -तो क्या मैं भी सयम नहीं ले सकता ।-कृष्ण ने सविनय पूछा। - ऐसा ही है। अब कृष्ण को और भी चिन्ता हुई। वे अपने मरण के प्रति जिज्ञासु हो गए। पूछा-~-प्रभो ! मेरा मरण किस प्रकार होगा ? -तुम्हारे भाई जराकुमार के द्वारा ।-प्रभु ने बताया। --क्या द्वारका मे ही ? -- नही, द्वारका तो पहले ही विनष्ट हो जायगी। -कारण ? -मदिरा, द्वीपायन और अग्नि ही इसके विनाश के कारण होगे। द्वारका का विनाश सुनकर सभी यादव चिन्तित हो गए। कृष्ण ने ही पुन. यूछा -प्रभो । स्पप्ट वताइये कि द्वारका के विनाश में ये तीनो किस प्रकार कारण वनेगे । यह द्वीपायन कौन है ? ३२७
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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