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________________ ३२६ जैन कथामाला : भाग ३३ वल क्षीण होता गया। कृष्ण मुसकराते रहे । वे जानते थे-उवसमेण हणे कोह । पिशाच अपनी ही क्रोधाग्नि मे जलकर क्षीण-वलहीन हो गया। वह उनके चरणो मे आ गिरा और बोला -कृष्ण ! तुमने मुझे जीत लिया । मै तुम्हारा दास हूँ। तव तक चौथा प्रहर भी समाप्त हो चुका था। प्रात. की प्रथम किरण के साथ सात्यकि, दारुक और बलदेव भी उठ बैठे। उनकी दशा बुरी थी। सभी लोहूलुहान और घायल थे । कृष्ण ने पूछा -आप सब लोगो की यह दशा कैसे हुई ? -रात को पिशाच आया था। उससे युद्ध का परिणाम है। -युद्ध तो मैंने भी किया। -कृष्ण ने कहा। सभी आश्चर्य से उनके अक्षत शरीर को देखने लगे। तभी कृष्ण ने कहा -साथियो । तुम्हे युद्धकला का समुचित ज्ञान नही है। क्रोध को सदा मधुर वचन और उपशात भाव से जीतना चाहिए ! जिस पिशाच को तुम युद्ध मे नही जीत सके, वह क्षमा, मधुर वचन और उपशम भाव के अमोघ अस्त्र से विजित यहाँ पडा है। सभी ने कृष्ण की महानता की सराहना की। . -उत्तराध्ययन २१३१ की टीका विशेष-थावच्चापुत्र का वर्णन ज्ञाताधर्मकथा, श्रुतस्कन्ध १, अध्ययन ५ मे भी आया है। वहाँ इतना उल्लेख और है कि उन्होंने प्रबजित होने के पश्चात भगवान अरिष्टनेमि से हजार साधुओ के साथ जनपद विहार की आज्ञा मांगी। भगवान की आज्ञा मिलने पर वे शैलकपुर नगर मे पहुँचे और वहाँ के राजा शलक को उपदेश देकर पांच सौ मन्त्रियो सहित श्रमणोपासक बनाया। सौगन्धिका नगरी (विहार जनपद) मे शुक परिव्राजक को तत्त्व ज्ञान देकर प्रवजित किया । कुछ काल बाद राजा शैलक भी प्रवजित होकर मुक्त हुआ। -ज्ञाताधर्मकथा, श्र.० १, अ०५
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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