SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कन्या ने बताया कि मैं तो स्वय ही सागरचन्द्र से लग्न की इच्छुक थी। धनसेन ने प्रतिवाद किया -किन्तु इसका वाग्दान तो राजा उग्रसेन के पुत्र नभ सेन के साथ हो चुका है । वारात आ चुकी है । मै क्या मुह दिखाऊँ ? तव श्रीकृष्ण ने शाव से पूछा-यह सब कैसे हुआ? शाव ने सम्पूर्ण घटना बता दी। होनी को प्रवल मानकर कृष्ण ने कहा—अव क्या हो सकता है ? इसके वाद उन्होने कुमार नभ सेन को समझा-बुझाकर लौटा दिया और कमलामेला सागरचन्द्र को सौप दी। विवश सा रह गया धनसेन । न वह यादवकुमारो से कुछ कह सकता था और न द्वारकानाथ से ही। असमर्थ और निर्बल व्यक्ति समर्थ और वलवान के समक्ष कर भी क्या सकता है ? अपमान का कडवा दूंट पीकर रह गया और सागरचन्द्र के दोष देखने लगा। -त्रिषष्टि० ८८
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy