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________________ २७० जैन कथामाला भाग ३३ शाव ने प्रज्ञप्ति विद्या द्वारा कमलामेला और उसके पिता धनसेन का पूरा परिचय प्राप्त किया। अब चिन्ता यह थी कि कार्य कैसे सपन्न किया जाय । द्वारका के शासक श्रीकृष्ण है और उनके रहते नगरी में से किसी कन्या का अपहरण अथवा उसके पिता पर दवाव असभव है। काफी ऊहापोह के बाद एक युक्ति सोच ली गई । युक्ति थी-नगर के बाहर उद्यान से से कमलामेला के कक्ष तक सुरग वनाना और फिर उसी मार्ग से कन्या को लाकर सागरचन्द्र के साथ उसका लग्न कर देना। अथक परिश्रम करके शाव ने सुरग का निर्माण किया । कन्या के पास यादवकुमार सागरचन्द्र जा पहुँचा । अपना परिचय वताकर चलने को कहा । कमलामेला तो अनुरक्त थी ही तुरन्त चल दी। उद्यान मे आकर उसका लग्न भी हो गया। धनसेन को विवाह के समय जब कन्या घर मे न मिली तो चारों ओर खोज करने लगा । खोजते-खोजते नगर के बाहर उद्यान मे उसे अपनी पुत्री विद्याधर रूपी यादवकुमारो के मध्य बैठी हुई दिखाई पडी । दाँत पीसकर रह गया धनसेन । यादवकुमारो से वह भिड नही सकता था । इतनी शक्ति ही कहाँ थी? शीघ्र ही जाकर वासुदेव श्रीकृष्ण से पुकार की -आपके राज्य मे ऐसा अन्याय ? पिता को खवर भी नही और पुत्री को विद्याधर लोग ले उडे । ___ श्रीकृष्ण तुरन्त ही उद्यान मे जा पहुँचे । उन्होने विद्याधरो को युद्ध के लिए ललकारा । वासुदेव के कोप से प्रज्ञप्ति विद्या भाग गई और यादवकुमार अपने असली रूप मे आ गए। यह देखकर कृष्ण को वडा आश्चर्य हुआ। तव तक शाव आदि सभी कूमार उनके चरणो मे गिर पड़े और विनम्र स्वर मे बोले -द्वारकानाय | कोप करने से पहले हमारी भी, सुनले । --क्या कहना चाहते हो तुम लोग ?. -इस कन्या से ही पूछ ले कि हम इसे-वलात लाए है अथवा "
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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