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________________ श्रीकृष्ण-क्या-द्रौपदी स्वयवर २१६ कैसे परोसा जा सकता है ? अत वह तो ढक कर एक ओर रख दिया और पति एव देवरो को दूसरे गाको में भोजन करा दिया। नागश्री यह सोच ही रही थी कि इस गाक का क्या किया जाये कि मामखमण के पारणे हेतु धर्मरुचि अनगार आते दिखाई दिये। उसने वह सारा गाक उन्हें बहरा दिया। मुनिश्री जब शाक लेकर आचार्य धर्मघोष के पास पहुंचे तो उन्होने उठती हुई गन्ध से ही समझ लिया कि यह गाक नही जहर है। उन्होने कहा-भद्र | इसे 'निर्दोष स्थान पर परठ दो। यह अखाद्य है। जो भी खाएगा उसका प्राणान्त ही समझो। धर्मरुचि ने प्रयास करके निर्दोप स्थान ढूंढा । परठने को उचत हुए तो पहले एक बूंद जमीन पर डाल कर देखी । शाक की तीन सुगन्धि से आकर्षित होकर अनेक चीटियाँ आदि आई और चखते ही काल के मुंह में समा गयी। मुनिश्री को अनुकम्पा हो बाई। उन्होने सोत्रा-जब एक बूंद का ही यह परिणाम तो सम्पूर्ण माक का कैसा भयकर दुष्परिणाम होगा? यह नोचकर उन्होने स्वय ही गाक खा लिया और समाधिपूर्वक देह त्याग दी। वे सर्वार्थसिद्ध विमान मे अहमिंद्र हुए। धर्मरचि को जव काफी देर हो गई तो आचार्य धर्मघोप को चिन्ता हुई । उन्होने दो साधुओ को उनको खोज मे भेजा। उन्होने लौटकर बताया कि उन्होने तो देहत्याग दी है। यह समाचार और मुनिश्री की मृत्यु का कारण लोगो को पता लगा तो सबने नागश्री को विक्कारा । मोमदेव ने भो उसके अक्षम्न अपराव के कारग उसे घर से निकाल दिया। नागश्री दुखी होकर भटकने लगी। उसके गरीर मे कास, श्वास, कुण्ठ आदि अनेक महारोग हो गए । वह नारकीय वेदना भोगने लगी। मरकर छठे नरक मे गई। वहाँ से निकल कर चाडालिनी बनी । पुन मरी और नातवे नरक मे पडी । वहाँ से निकली तो म्लेच्छ बनी, फिर नरक मे उत्पन्न हुई । इस प्रकार नागश्री ने प्रत्येक नरक की वेदना दो-दा बार भोगी। फिर पृथ्वीकाय आदि जीवो मे कई वार उत्पन्न
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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