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________________ दि देखीने रलियायत थाय ॥ ३५॥ प्रनने पूरे वनितानो वासी, ए रिद्धि इणपरे रहेशी के जा शी॥ वलता तीर्थकर तेवीश थाशे, चोवीशमा ते मरीची थाशे ॥ ३६॥ तुम सरखा चक्रवर्ति बारे, वासुदेव प्रतिवासुदेव अठारे ॥ नव बलन द्र ने वेशठ हुआ, बीजे शास्त्रे संबंध जूजुआ। ॥३७॥पदवि वेशठने सरीर साठ, माता वेपन ने जीव जगुणसाठ ॥ बाप एकावन सहु कोइ जाणे, मूरख मन मांहे संदेह आणे ॥ ३८॥म रीचि प्रमुखनो संबंध कह्यो, चक्री सांनली हे रान थयो॥ वाप बेटाने वंदण जाय, अहंकारें नीच गोत्र बंधाय ॥ ३९ ॥ वांदी पूजीने नरत जाय, संघ काव्यानो रंग थाय ॥ शेजा के रो संघ चलाजं, धर्म ऋपननो बहुलो हलाउं॥ ॥४०॥ ताणी तंबने तैय्यार कीधा, मुहूर्त जो इने मेलाणा दीधा ॥ बए खंममा फेरी सहराई, शत्रुजय यात्रा आवारे नाई ॥४१॥ देशी पर देशी अति घणा मिलिया, साहमी सघलाए सं घमां निलिया ॥ पुत्र पोतरा कोड सवाइ, पांच शेनी नित्य आवे वधाइ ॥४२॥ लाख चोरा
SR No.010305
Book TitleJain Shiloka Sangraha Pustika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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