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________________ R ६४ - जैन- महाभारत - , 1 मन मसोस कर सहलो ।” तब भीम ने युधिष्ठिर को लक्ष्य करके कडक - कर कहा - ' भाई साहब । दरिद्र, अज्ञानी, अधर्मी और गवार जुनारी भी जुए में हार जाते हैं, पर अपनी रखैल स्त्री की भी बाजी नही लगाते । किन्तु आप अन्धे हो कर द्रुपद की कन्या को हार बैठे आप ने ही यह भूलकर के सती द्रौपदी का धूर्तों के हाथों अपमान कराया। इस भारी अन्याय को मैं नहीं देख सकता । आप ही के कारण यह घोर पाप हुआ है। भैया सहदेव !, कही से जलती हुई आग तो लेआ। जिन हाथो से महाराज युधिष्ठिर ने जुआ खेला, और जिन हाथो के कारण- द्रोपदी भाभी का अपमान हुआ, उन्ही को मैं जला डालू f ין ' भीम सेन को आपे से बाहर देखकर अर्जुन ने उसे रोका और बोला - "भैया सावधान ! युधिष्ठिर भाई के सम्बन्ध मे ऐसी कोई बात मुह से न निकालो। क्यो कि यदि हम आपस मे ही ऐसी बाते करने लगे तो शत्रुओ की पूरी तरह से विजय हो जायेगी । यह हमारे पूर्व कर्मों का ही फल है, जो हमारी बुद्धि मारी गई और हम स्वयमेव ही अधर्म की ओर चले गए । शान्त हो जाओ और जो होता है उसे सहन करो ।” अर्जुन की बात सुन कर भीमसेन- शान्त हो गया, अपने को सम्भाल लिया और क्रोध को पो गया । [ के द्रौपदी की ऐसी दोन अवस्था को देख कर दुर्योधन के एक भाई विकर्ण को बहुत ही दुख हुआ, उससे न रहा गया खडा हो गया, और बोला — उपस्थित क्षत्रिय वीरो वृद्धजनो और दर्शको । मैं नही चाहता था कि आपके सामने कुछ कहू । जिस सभा मे कुल के वृद्ध मुलझे हुए, बुद्धिमान और अनुभवी लोग तथा वे लोग जो न्याय रक्षक हैं, विराजमान हो तो कम ग्रायु के लोगो को बोलना नहीं चाहिए, परन्तु जब न्यायाधीश ही चुप चाप तमाशा देखने लगे, जब कि अन्याय अपना नग्न ताण्डव करता हो, पर वृद्ध जनो के कान पर जू न रंगती हो, जब कि किसी सन्नारी के साथ अत्याचार हो रहा हो और विद्यावानो तथा न्यायकर्ताओ के मुह पर ताले पड गए हो, तो छोटो को जिनकी बुद्धि सही सलामत है, जिन का विवेक जीवित है, जो न्याय प्रिय है, उन्हें विवश हो कर
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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