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________________ द्रौपदी स्वयंवर ५६५ आदि के आते रहने से नगर में की नित नई चहल पहल दिखाई दे रही थीं । वह नगर तो पहले ही अत्यन्त रमणीय था । फिर इस आयोजन ने सोने में सुगन्धी का काम कर दिया। इसमें यातायात के लिए बड़े राजमार्ग थे । इन राजमागों के दोनों ओर गगन चुम्बी अट्टालिकाएँ अवस्थित थीं जो नग समान प्रतीत हो रही थीं। ये अट्टालिकाओं तथा इन पर हुई सुन्दर चित्रकारी उस युग की कला की प्रतीक थी । I यह नगर सुन्दरता की दृष्टि से ही नहीं किन्तु नागरिकों की सुख सुविधा में भी महान् नगरों का चुनौती दे रहा था । जैसे कि आजीविका के लिए उद्योगशालायें, बौद्धिक विकास के लिए शिक्षा सस्थाएँ व्यवस्था के लिए नगरपालिका तथा आरक्षक विभाग थे । स्वास्थ्य के लिए स्थान स्थान पर चिकित्सालय थे। खान-पान की सुविधा के लिए बड़े बड़े आपण थे जो नगर निवासियों तथा समीपस्थ ग्रामीणों के लेन देन के माध्यम बने हुए थे । यथा स्थान उपवन भी थे जिनमें आबाल वृद्ध सभी क्रीड़ा का आनन्द लूटते थे । महाराज द्रुपद के न्याय, कारुण्य और वीरत्व का यशोगान प्रत्येक पुरवासी की जिह्वा पर उच्चारित हो रहा था। सभी ने अपने राजा की राजकुमारी के विवाह महोत्सव में अपनी अपनी कला से स्वागतार्थ उच्चतम वस्तुएँ निर्माण की थी। जिसे देखकर कलाकार के लिए दर्शक के मुह से वाह । वाह | शब्द निकल पड़ते । कोई किधर ही निकल जात उसे चारों ओर ही खुशी का आयोजन ही दिखाई देता । फिर उन दीर्घ एव विस्तीर्ण राजप्रासादो की तो बात ही क्या थी । विद्यत से सजे हुए प्रासादों का जब अलौकिक प्रतिबिंब पीछे की ओर रही गंगा नदी के निर्मल जल में पड़ता था तो वे साक्षात् स्वर्णमय जलगृह ही प्रतीत होने लगते थे । इस प्रकार वधू की भाँति सजी राजधानी सचमुच ही दर्शनीय थी . धीरे धीरे जरासंध कुमार सहदेव, चन्देरी पति शिशुपाल महाराज विराट पुत्र, अगराज कर्ण, शलान्दी आदि मुख्य राजा गण तथा अन्य छोटे छोटे राजा जन भी यथा समय काम्पिल्यपुर पहुंच गये । उनके निवासार्थ महाराज द्र पढ़ ने पहले ही भव्य आवास गृहों का प्रबन्ध कर रक्खा था। जिसमें सब प्रकार की सुख सुविधा की सामग्री उपस्थित
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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