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________________ ५६४ जैन महाभारत गोलाकार स्थान पर स्वर्णमय सिंहासन रक्खे गये थे । जो यथा योग्य बड़े छोटे राजाओं के बैठने के लिये नियुक्त थे तथा उन पर उनका नामादि अकित था । इस प्रकार अनेको अनुपम वस्तुओं से सुसज्जित वह मंडप ऐसा लगता था मानो अमरावती से देव विमान ही पृथ्वी तल पर उतर आया हो । धीरे धीरे मार्ग तय करते हुये यादवचन्द्र श्री कृष्ण भी अपने स्वजन परिजन सहित कांपिल्यपुर के निकट आ अहुँचे । इनके आने की सूचना पाते ही महाराज द्रपद अपने मन्त्रियों तथा स्वयर में आये राजाओं सहित पुष्पमालादि आदरोचित्त सामग्री ले स्वागतार्थ जा पहुचे । साथ ही उनके दर्शनोत्सुक प्रजा समूह भी समुद्र की भांति उमड़ पड़ा मानो वह चन्द्र को पाने के लिए जा रहा हो। वहां जाकर उन्होंने यथायोग्य स्वागत सत्कार किया । और बहुमान के साथ नगर में लिवा लाये । उस समय पाचजन्य हाथ में लिए तथा शारग धनुष को स्कन्ध पर धारण किये हुए श्री कृष्ण की शोभा अत्यन्त रमणीय थी । वे समस्त यादवो मे चन्द्र समान ऐसे देदीप्यमान हो रहे थे । मानो अपने तारक समूहको साथ लिये आरहा हो । उनके नील मणि समान सुन्दर नीलाभ वदन को देखकर स्वागतार्थ पहुंची नारियों के नेत्र चकोर उन्हें देखते अघाते ही न थे। फिर साथ रहे हुए प्रद्युम्न - शाम्ब, आदि की सुन्दरता तो अनुपम थी ही। लालनाओं की दृष्टि उन पर तब तक जमी ही रही जब तक कि वे आवासगृह में न पहुंच गए। उनके तेजोमण्डित भव्य भाल के आगे सभी आगन्तुक नत मस्तक थे । श्री कृष्ण का इस प्रकार के स्वागत का अर्थ था अपने मान की रक्षा करना क्योंकि एक तो वे भावी वासुदेव थे दूसरे उन्होंने प्रत्यक्ष मे अपना चमत्कार दिखा दिया था जिससे कि समस्त राजा तथा प्रजा जन आश्चर्य चकित और भयभीत बने हुये थे । वह था चमत्कार नृशसी कस का वध तथा शिशुपाल की पराजय | अतः द्रपद भी यह नहीं चाहता था कि वह उनकी आखों में आये । इसी तरह दिनों दिन देश देशान्तरों से राजा महाराजा, युवराज
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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