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________________ द्रौपदी स्वयवर ५६३ हृदय दहल उठते थे । इस प्रकार सचमुच महाराज पाण्डव की सवारी दर्शनीय थी। ____ मार्ग में कुरु प्रदेश के अनेकों छोटे-बड़े राजाओं तथा प्रजाजनों द्वारा सन्मानित होते हुये महाराज पाण्डू ने पाचाल प्रदेश में प्रवेश किया। महाराज पाण्डु के पाचाल प्रदेश में आने की सूचना दूत ने महाराज द्र पद को जाकर दी। सूचना पाते ही राजा द्र पद हाथी पर सवार हुवा महाराज पाण्डू के स्वगतार्थ जा पहुंचा। द्र पद को अपने निकट आते देख महाराज पाण्डू अपने रथ से नीचे उतर पड़े और सप्रेम भुजाएँ फैला कर उनसे मिले । दर्शकों को इन दोनों राजाओं का सम्मिलन दूध पानी की भांति प्रतीत हुवा। दोनों ने एक दूसरे से कुशल क्षेम पूछी । पश्चात् दोनों राजा फिर अपने अपने रथ में सवार हो गये और शनैः शनै काम्पिल्यपुर के निकट एक सुन्दर उद्यान में श्रा पहुँचे और द्र पद की आज्ञानुसार उस दिन महाराज पाण्डू ने उसी उद्यान में निवास किया। - ___ उधर स्वयवर की तैयारियाँ हो रही थीं । उसके लिए एक विशाल एव सुन्दर मंडप का निर्माण हुवा। जिसकी भूमि नीलमणि की भांति चमक रही थी। इसमें सहस्त्रों स्वर्णमय स्तम्भ जिन पर नाना वर्णों वाले रत्नमय लगे हुए हार जो दूर से वृक्ष शिखर पर चढ़ी हुई लताओं की भाति दिखाई दे रहे थे। बीच बीच २में छोटे २ कितनेक नील मणियों से निर्मित स्तम्भ थे जिन पर शिल्प शास्त्रियों द्वारा देवागनाओं के उत्तम चित्र अंकित थे जिनको देख देख कर सभी चकित हो रहे थे । वस्तुतः ये चित्र पाचाल देश की जीवित चित्रकला के परिचायक थे। मडप के उवभाग में लगे चित्र इन्द्र सभाका साक्षात् आवाहन कर रहे थे। उसके प्रमुख द्वारों पर बंधे तोरण मांगलिक स्थान का परिचय दे रहे थे । नाना वर्ण वाली बधी पताकाएँ प्रकोष्ठ स्थानों को सजा रही थी। मडप के ठीक मध्य में एक उच्च स्वार्णसन अर्थात् वेदी का निर्माण किया गया था जिसे दर्शक गण पृथ्वी के मध्य में अवस्थित नगराज सुमेरु की उपमा से उपमित करते थे। पास ही चारों ओर चार लघु वेदिकाएँ बनी थीं। इनके चारों ओर
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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