SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 586
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६२ जैन महाभारत rrammm .ran. दूत के मुख से इन मंगलमय वचनों तथा राजा द्र. पद की विनति को सुन कर कुरु वंश के सभी राज पुरुषो का मन देखने को लालायित हो उठा अतः महाराज पाण्डु ने आगमन की हर्ष सूचक स्वीकृति प्रदान करते हुये दूत को सम्मान पूर्वक विदा दी। दूत के प्रस्थान करने के पश्चात् भीष्मादि वृद्ध पुरुष तथा कौरवपाण्डव श्रादि तरुण राजकुमारों व अन्य स्वजन परिजन और मन्त्रियों सहित महाराज पाण्डू ने कांपिल्यपुर के लिये प्रस्थान किया । उस समय महाराज पाण्डू की सवारी सचमुच ही वर्णनातीत थी । सर्व प्रथम वादकों का मण्डल आगे २ अपने वाद्य यन्त्री से मगल सूचक ध्वनि का प्रसार करता हुवा चल रहा था जो भविष्य के मंगल कार्य का प्रतीक स्वरूप था। इनके पीछे शास्त्रास्त्रों से सुसज्जित साक्षात प्रातक स्वरुप दुर्दान्त वीराके वाहन चल रहे थे । इसी प्रकार ठीक मध्यम कला कोविदों की नाना कलाओं का आगार हिरण्यमय एक रथ था जिस में महाराज पाण्डू अपनी दोनो रानियो कुन्ती और माद्रीके साथ विराजमान इन्द्र तथा इन्द्राणी के समान शोभित हो रहे थे। इनके पीछे पीछे महाराज धतराष्ट्र भी अपनी रानियो सहित अत्यन्त रमणीय रथ पर सवार थे। इसी प्रकार विदुर आदि सभी बन्धु तथा द्रोण आदि सम्मानित सभ्य जन अपनी अपनी सवारी पर अवस्थित थे। दुर्योधन श्रादि सौ माता तथा युधिष्ठिर आदि पॉच पाण्डव राजकुमार भी अपने अपने विशिष्ट वाहनों पर सवार थे। जिनके शरीर बहुमूल्य परिघानी एवं रत्नाभरणों से सुमज्जित थे। उन पर पड़े हुये ढाल, खड्ग, धनुप, तुणीर, भाला आदि शस्त्र उनके शारीरिक शक्ति अथवा सुकीमार्य, तथा सौंदर्य गुणों के सिवा वीरत्व गुण के परिचायक थे। ___इस प्रकार सर्वागं सुन्दर यह एक सौ पाँच राजकुमार कुल की शोभा बढ़ा रहे थे। एक एक रथ पर राज्य चिन्हांकित एक एक पताका थी जो अत्यन्त दूरी से ही श्रागमन की सूचना दे रही थी। इन सय वाहनों के पश्चात शास्त्रास्त्रों सहित हाथी, घोड़े. पदाति आदि की सेना चली श्रा रही थी। जिनकी पदचाप तथा चिघाड़ों श्रीर हिनहिनाहट से पृथ्वी कांप रही थी। बीच बीच में वीर योद्धाओं द्वारा बल प्रदर्शन निमित्त किये गये धनुष के टंकार आदि शब्दों को सुनकर कायरों के
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy