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________________ २६ जन महाभारत इसी बीच में राजकुमारी ने प्रश्न क्रिया-हे साध्वीजी | अब आप प्रथम मुझे उन आठ कर्मो का ज्ञान कराइयेगा जिससे कि सांसारिक प्राणी दिन-रात पीड़ित रहते है। साध्वी ने उत्तर दिया कि-हे देवानुप्रिये । ध्यानपूर्वक सुनो मैं तुम्हें उन कर्मो का हाल सुनाती हूँ जिससे बंधा हुआ यह जीव भव भ्रमण करता रहता है । प्रथम वह कर्म है जिसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते है । यह प्राणी के ज्ञान गुण को उसी भांति ढांप लेता है जैसे मेघ घटा सूर्य को ढॉप लेती है । इस कर्म की उत्पत्ति मनीषियों, ज्ञानी पुरुषो तथा ज्ञान की अवज्ञा आदि करने से होती है जिसके फलस्वरूप प्राणी अज्ञानी बनता है। दूसरा कर्म दर्शनावरणीय है जो प्राणी के दर्शन गुण-प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष वस्तु के सामान्य स्वरूप को अर्थात् जो देखने मे रुकावट डालता है उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते है। जैसे द्वारपाल के प्रतिबन्धक हो जाने से राजा के दर्शन नहीं होते। उसी तरह जब दर्शनशक्ति पर आवरण आजाता है तो जीव, अजीव पुण्य, पाप, आश्रव, सवर आदि तत्वों पर दृढ़ विश्वास नही हो पाता। ऐसा प्राणी निरन्तर शकाशील ही बना रहता है अधिक तो क्या उसे अपने किये हुए कार्य पर भी पूर्ण विश्वास नहीं होता। वेदनीय नामक तोसरा कर्म है जिसके उदय से प्राणी सुख-दुःख का अनुभव करता है । इस कर्म के दो भेद हैं-साता और असाता। साता कर्म अर्थात् जिसके प्रभाव से सुख का अनुभव हो, यह कर्म प्राण, भूत, जीव, सत्वी को यथायोग्य सुख सुविधाये देने से तथा उनके प्रति कल्याण और हित की भावनाए रखने से उत्पन्न होता है। इस कर्म के उपार्जन से इस लोक तथा परलोक में जीवनोत्थान के साधन प्राप्त होते हैं । असाता कर्म प्राण-भूत-जीव, सत्वो को दुख, परितापन, परिताडन और अगछेदन आदि के करने तथा उनका अनिष्ट वाञ्छने से बन्धता है। जिससे अन्त में नारकीय यातनाएं भोगनी पड़ती हैं । चौथा कर्म है मोहनीय,मोहनीय का अर्थ है मोहने वाला अर्थात् वस्तु मे आसक्त रहने की प्रेरणा देवे वह माहनीय कर्म है। किसी वस्तु विशेष मे मोहित होकर उसी में आसक्त रहना तथा अन्य पर द्वष प्रगट करना मोहनीय कर्म का लक्षण है। यह कर्म आत्मा को हानि लाभ के विवेका. विवेक से उसी भाति शून्य कर देता है जिस प्रकार मदिरापान किये हुए
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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