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________________ ५२६ जैन महाभारत 'तो फिर मुझे दण्ड ही दीजिए। शाम्बकुमार के कण्ठ से निकल गया । पर वह स्वयं ही अपने शब्दो पर पश्चाताप करने लगा । वह दण्ड की बात सोच कर कांप उठा । न जाने पिता जी कौन सा कठोर दण्ड दे डाले ? वह कैसे उसे सहन कर सकेगा ? यह सोच कर उसका रोम रोम काप उठा । 'यदि तुम दण्ड भोगने को तैयार हो श्री कृष्ण ने कहा-तो जाओ इसी क्षण नगर से बाहर निकल जाओ और किसी को अपनी यह काली सूरत न दिखाओ ।' शाम्बकुमार बहुत रोया, गिड़ गिड़ाकर आदेश को वापिस लेने की प्रार्थना की, पर श्रीकृष्ण अपनी बात पर अटल रहे । कुमार को उसी समय नगर से निकल जाना पड़ा । जिस समय नगर निवासियों ने सुना कि श्रीकृष्ण ने अपने पुत्र को नगर निर्वासित कर दिया है। सभी उनके न्याय की प्रशसा करने लगे। कितने ही दाँतों तले उंगली दबाकर रह गए - ओह | अपने पुत्र के साथ तनिक सी भी सहनुभूति नहीं की । न्याय का इतना दृढ़ दृष्टात !! * प्रद्युम्न कुमारका भातृत्व * जब प्रद्युम्न कुमार ने सुना कि शाम्ब कुमार को निर्वासित कर दिया गया, उसे बहुत दुःख हुआ, दुःख इस लिए नहीं कि वह शाम्बकुमार के दुष्चारित्र्य को उचित समझता था, अथवा वह उसे कठोर दण्ड समझ रहा था बल्कि इस लिए कि शांवकुमार ने ऐसे दुष्कृत्य किए कि पिता जी को उसे नगर से निकालना पड़ा। वह उसका भाई है । जिसे उस ने ही राज्य सिंहासन दिलाया था, उसकी यह दुर्दशा हो, दुःख की हो तो बात थी । वह नगर से निकल चला, शाम्बकुमार की खोज मे । विपिन में उसे शाम्बकुमार मिला । प्रद्युन कुमार को देखते ही वह फूट पड़ा - "भ्राता जी । मुझ पापी को खोजने के लिए आज क्यों आए ? मैं तो नीच हॅू। 1 पिता जी ने मुझे इस योग्य भी नहीं समझा कि मैं नगर में भी रह । उन्होंने कहा कि मैं किसी को अपना काला मुंह भी न दिखाऊं । में नहीं चाहता कि आप मुझ से मिले । श्राप चले जाइये ।"
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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