SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 551
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शाम्ब कुमार मार ५२७ शोक विह्वल होकर कहे गए इन शब्दों को सुनकर प्रद्युम्न कुमार भी दुखित हो गया, उसने भाई को सम्भालते हुए कहा-"भैया ! पिता जी ने तुम्हे जो दण्ड दिया, वह इसी लिए तो कि तुम जीवन मे पुन ऐसा पाप कमाने की भूल न करो। वे पिता हैं, वे नहीं चाहते कि उनका बेटा ऐसे दुष्कृत्य करे कि जिन के कारण वह तो नरक में जाये, पर उस के कुल के लिए यह ससार ही नरक बन जाय । तुम अब अपनी भूल पर पश्चाताप कर रहे हो, यही ठण्ड का उद्देश्य होता है। अपने को सम्भालो और अब पुण्य मार्ग पर चलो।" "भ्राता जी । में अपने अपराधो को स्वीकार करता हूँ। पर अपने को सुधारने, खोई प्रतिष्ठा को पुन प्राप्त करने, लोगों में अपने प्रति ___ फैली घृणा को दूर करने और सच्चा मानव बनने का तो अधिकार मुझे मिलना चाहिए। मैं समझ गया हूँ कि मैंने कितना घोर पाप किया है। पर दण्ड तो सुपथ पर लाने के लिए ही होता है । आप विश्वास रखिये कि पूज्य माता जी व पिता जी ने एक ही झटके से मेरी आँखें खोल दी थीं। मेरी बुद्धि पर पड़ा हुआ विषयानुराग का पर्दा अलग हो चुका अब मैं सुपथ पर चलना चाहता हूँ। पर मुझे उसी समाज में वापिस जाने दिया जाय, जिस ने मुझ पर थूका है। वहाँ मैं अपने चरित्र की धाक जमा दू गा,मैं अपने कुल का नाम उज्ज्वल करूगा । पर मुझे अवसर तो दिया जाय ।' शाबकुमार ने द्रवित हो कर कहा । उसकी बात तक सगत थी। __ प्रद्युम्न कुमार बोला- “भैया । पिता जी के हृदय में पुत्र स्नेह अभी तक है । वे तुम्हें सुधारना ही चाहते हैं। पर उन्होंने जो आदेश दिया है किन्तु उसे वह वापिस नहीं ले सकते।' शाम्बकुमार घुटनों के बल बैठ गया और विनय भाव से बोलाभ्राता जी आप ने पग पग पर मेरी सहायता की, आप ही ने मुझे राज्य सिंहासन दिलाया, आप ही पर मुझे गर्व है। आप ही का सहारा है। इस अवसर पर फिर आप मेरी सहायता कीजिए। "भैया मैं तुम्हें सुमार्ग पर लाने के लिए जो कर सकता हूँ करूगा । मुझे भी तुमसे हार्दिक स्नेह है।" प्रद्युम्न कुमार ने वायदा कर लिया कि जो भी हो सकेगा, वह
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy