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________________ शाम्ब कुमार ५२५ भृकुटि तनी थी। फिर उस ने ग्वालिन की ओर देखा । वह देरा कर सिहर उठा कि वह ग्वालिन नहीं बस उस की माता ही है, जाम्बवती । उसने क्षमा मांगी। + पर माता के नेत्रों में वात्सल्य की अपेक्षा क्रोध तैर रहा था। उस ने कहा - " आज मुझे तेरे चरिन को देख कर तुझे अपना पुत्र कहते हुए भी लज्जा आती है। तू ने अपने दुष्चरित्र से हमारे कुल को कलकित कर दिया, तू ने मेरी कोस कलकित कर डाली । इस से तो मैं निपूती ही रहती तो 'अच्छा था ।' 'मा' मुझे क्षमा कर दो। मैं पापी हूँ पर हूं प्रापका ही पुत्र । श्राज आपने मेरी आंखें खोल दीं । धिक्कार दे मुझे, मेरे जीवन को कोटिशः धिक्कार है। मैं लज्जित हू। मैं आप से क्षमा चाहता हूँ।' गिडगिडाकर शाम्यकुमार ने कहा । पर मां उस समय कठोर हो गई थी, पुत्र के आंसुओ से भी उसका हृदय नहीं पिघला, वह बोली- नहीं, नहीं तेरा पाप क्षम्य नहीं है । तुझे जितना भी दण्ड दिया जाय कम ही है ।' तब कुमार श्री कृष्ण के चरणों में गिर पड़ा, उसके अथ उनके चरणो को धो रहे थे, अवरुद्व कण्ठ से वह बोला- "पिता जी | मुझे आप ही क्षमा कर दीजिए। आप तो करुणानिधान है, आप ही मा को समझाइये | वास्तव में मुझ से बडी भूल हुई है। मैं भटक गया था।' श्री कृष्ण ने गम्भीरता पूर्वक कहा - 'मैं तुम्हे क्षमा कैसे कर सकता हॅू क्षमा मांगनी ही है तो उन देवियों से मार्ग: जिन्हें तुम ने कुदृष्टि से देखा है । उन से मागो जो तुम्हारे इस पाशविक चरित्र से आतकित, भयभीत एव पीडित हुए हैं। मैं तो तुम्हें क्षमा नहीं दण्ड दे सकता हूँ ।' + कहते हैं कि उस दिन तो शर्म के मारे शाम्ब गायव ही रहा और दूसरे दिन श्री कृष्ण ने उसे पकड मगवाया, तब जाम्बवती भी पास बैठी थी श्रौर शाम्व उस समय एक काठ की कील घड रहा या । तव श्रीकृष्ण ने पूछा कि 'यह कील क्यो बना रहे हो ? उद्दण्ड शास्त्र ने उत्तर दिया- 'जो मनुष्य कल की बात श्राज कहेगा उसके मुह में यह कील ठोक दूंगा इस लिए बना रहा हूँ ।' शाम्व के इस मूर्खता पूर्ण उत्तर को सुन कर श्रीकृष्ण रुष्ट हो गये और उन्होंने उसे नगर से बाहर निकल जाने की श्राज्ञा दे दी । त्रि०
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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