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________________ जैन-महाभारतmmmmmmm mamimammmmmmmmmmmonm मत्री ने शिक्षा पूर्ण शब्दों में कहा । नृप को और भी क्रोध आया और गरज कर बोला-"जान बूझ कर हमारे देश का उल्लंघन करने को आपका साहस कैसे हुआ ?" "महाराज । मै पर नारी की ओर कुदृष्टि डालना घोर पाप समझता हूँ।" मंत्री ने स्पष्टतया कहा। "भलाई इसी में है, कि आप चन्द्रामा से किसी भी प्रकार हमारी भेट कराइये । बिना उसके मिले हमे शॉति नहीं मिलेगी।" "महाराज ! मैं फिर कहूँगा कि दुव्र्यसन दुखदायी होते हैं, नृप को समझाते हुए कहने लगा, परनारी पर कुदृष्टि डालना तो भयकर दर्व्यसन है, यह तो बिना रस्सी का बन्धन है, यह बिना रोग का रोग , है, इसके कारण बिना काजल के ही मस्तक पर कालिख लग जाती है। बिना किसी सम्बन्धी की मृत्यु के इस कारण शोक छा जाता है,।, परनारी की ओर दृष्टि डालने वाला घोर अपयश का भागीदार बनता है, लोग उससे घृणा करने लगते है । अन्तमें उसे कुम्भी पाक अर्थात् नरक के दःख भोगने होते है । उसके लिए मोक्ष के द्वार बन्द हो जाते हैं।" ___ "मन्त्री जी । आप सत्य कहते है, परन्तु मैं बिना चन्द्राभा के जीवित नहीं रह सकता । वह मेरे स्वप्नों की अप्सरा बन चुकी है। वह मेरे हदय की धड़कनों में बस गई है।" नृप ने कहा । परन्तु मन्त्री ने उन्हे समभाया ही, उनकी इच्छापूर्ति के लिए प्रयास न किया। नप की बुरी दशा थी, उसे अन्न जल नहीं भाता, न नींद आती, न किसी कार्य मे मन लगता, दिन प्रति दिन दुबला, होने लगा, दिन में ही जागते हुए भी वह चन्द्राभा के स्वप्न देखता रहता । और बारम्बार कहता-मन्त्री जी ! हमें मृत्यु का ग्रास होने से बचाना है तो चन्द्रामा को मगाइये ।' पर मन्त्री उसकी बात टाल देता। अन्त मे एक दिन राजा को मृतप्राय जान मन्त्री ने कहा महाराज ! पहले बिना किसी से सम्पर्क स्थापित किये यों ही उसे अपना समझना बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती । अत आप उन से पहले आने जाने आदि का सम्पर्क उपस्थित करें, फिर आगे देखेंगे। ___ मन्त्री की यह बात नृप को पसन्द आई, और वह अवसर की “प्रतीक्षा करने लगा।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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