SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८४ जैन महाभारत 1 कहा- 'नाथ | आप यह कैसी बात कह रहे हैं ? बुद्धि से काम लीजिए हमें नृप को काले नाग के समान समझना चाहिए । उसका सत्कार तो करो, पर कोई ऐसी बात न करो, जिसके कारण हम पर कोई संकट आ सके ।" " इसमें सकट की क्या बात हैं ?" "आप अपनी पत्नी को उसे भोजन जिमाने को भेज रहे हैं, न जाने नृप के मन में क्या आ जाए और कोई संकट आ खड़ा हो।" रानी बोली । 1 कनकरथ हंस पड़ा । बोला - रानी । तुम भी कैसी बात ले बैठी ? वह नृप है । उसके महल मे एक से एक सुन्दरी है । तुम जैसी सुन्दरियाँ तो उसकी दासी है । अत किसी प्रकार का भय किए बिना तुम भोजन कराओ । रानी ने बहुत मना किया पर कनकरथ न माना और विवश होकर चन्द्राभा को ही स्वर्ण कलश के पानी से पांव धोने और भोजन कराने जाना पड़ा । मधु नृपने उसे देखा तो वह उस पर मोहित हो गया । उसकी दृष्टि चन्द्राभा पर ही टिक गई । इस बात को वह ताड़ गई । अत वह उसी समय वहां से उठकर चली गई । भोजन समाप्त होने पर मधु नृप ने अपने मत्री को एकान्त में बुलाकर कहा - " मंत्री जी । यह रानी बड़ी रूपवती है ।" "हां है तो " मत्री बोला । मंत्री उसके मन की बात भॉप गया । और इस अनर्थ को टालने के लिए उसने प्रस्थान की भेरी बजवा दी और नृप से वटपुर छुड़ाकर अवधपुरी ले आया । नृप बुरी तरह खीझ उठा, उसने कहा- मत्री जी ! आपने अवधपुरी लाकर हमारे हृदय को बड़ी ठेस पहुँचाई है । जब हमने कहा था कि चन्द्रामा से हमारा मिलन कराओ, तो आपने हमारो वात क्यों टाली ?" "महाराज ! आप विश्वास रखिये, लौटते समय आपकी भेट अवश्य हो जायेगी ।"
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy