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________________ रुक्मणि मंगल ४६१ विवाह सम्बन्ध निश्चित हो चुका है और श्री कृष्ण के याचना दूत को उमकी भर्त्सना करके निकाल दिया गया है । तभी से मुझे अत्यन्त खेद उत्पन्न हा रहा है किन्तु इस कुलागार रुक्म को समझाये कौन ? चाय माता ने दुखित होकर कहा। __इस समय कुन्दनपुर में रुक्मणि का उसकी धाय माता के सिवा । और कोई महायक नहीं था। वह बचपन से ही धाय को अपने हृदय के उद्गार म्पष्टतया बता दिया करती थी, उसे उस पर अट विश्वास था, वह उसे अपनो हितपणी समझती थी। अत उसने उससे कोई बात छुपा न रखी थी। ___"माता । भला कभी सत पुरुषी, तपस्वियों के वचन भी मिथ्या हो सकते है ? प्रात काल में उमडी हुई काली कजराली व गरजती हुई, वदलियां कभी निष्फल जा सकती हैं ? नहीं, कदापि नहीं । रुक्मणि ने माता के प्रति विश्वास पूर्ण शब्दों में कहा ।" वेटी । तूने जो कहा वह यथार्थ है, किन्तु अभी तक उसके किंचित लक्षण भी तो दिखाई नहीं देते । यात्री ने निराश होते हुए उत्तर दिया। माता, पुरुषार्थ के प्रागे मव हेच है, पुरुषार्थ ही भाग्य का निर्माता दै । तू ही तो बताया करती थी फिर श्राज तेरं मुख पर इतनी उदासी क्यों है ? रुक्मणि कहती गई-ले में एक उपाय बताती है किसी का यदि फरा तो। इममें भी कोई मन्देह है, मैंने तेरे लिए क्या कुछ नहीं किया ? नहीं मन्देह की बात तो नहीं, तेरे को उदाम देखकर ही मुझे ऐसा कहना पड़ा। हाँ. तो पता वह कौन सा उपाय है, वक्त निकट ही आने वाला है। धाय माता ने फहा। . समणि ने कहा मैं प्राणनाध को एक पत्र लिये देती है, उसे तुम पिनी विश्वस्त व्यशि हायों द्वारिकायती पहुचवादी, मुझ विश्वास है किये यथा शीघ्र ही मुझे लेन चले 'प्रायंगे। पर तो तुम ऐमा कर मकनी हो । 'प्राश्चर्य पूर्ण मुद्रा में भाय याली। Fi पापश्य दर मरती, जीवन के लिए क्या युछ नहीं करना पटला। त्यो पा पारनंग भी पाया गता है । ९० हल न:
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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