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________________ ४६२ जैन महाभारत अच्छा तो तुम शीघ्र ही उसके नाम पत्र लिख दो, मै भेजने का यथाशीघ्र ही प्रबन्ध कर दूंगी।" धाय के युक्ति समझ मे आ गयी । इधर रुक्मणि धात्री का आश्रय पा प्रफुल्लित हो गई और पत्र लिखने लगी "मैं तो आप ही को अपना पति मान चुकी हूं। मेरा हृदय आप जो वस्तु आपकी है उसी को चोरी करने के लिए राजा शिशुपाल वात लगाए बैठा है। इससे पहले कि शिशुपाल आप की चीज को हाथ लगाए, आप यहाँ आयें और अपनी चीज को बचाले । परन्तु मुझे प्राप्त करना भी सरल नहीं है। शिशुपाल और रुक्म की सेनाओं को मार भगाने के पश्चात् ही आप मुझे प्राप्त कर सकेंगे । सम्भव है जरासघ की सेना से भी टक्कर हो । शौर्य दिखलाकर विरोचित रीति से यदि आप ले जा सकते हों तो मुझे ले जाएं। बड़े मैदा ने रुक्म ने निश्चय कर लिया है कि शिशुपाल के साथ मेरा विवाह हो । परन्तु पिता जी पहले से ही आप के पक्ष मे है किन्तु उनकी चल नहीं रही । माघ कृष्ण जी को मेरा विवाह हो रहा है । उस दिन देव पूजा के बहाने मै आपसे उपवन में मिल सकती हूँ । वही अवसर मुझे ले जा सकेंगे। यदि आप यह न करेंगे तो मैं अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दूरंगी, जिससे कम से कम दूसरे जन्म मे तो आपको पा सकू .." पत्र लिखकर उसने अपनी धाय माता को थमा दिया और उसने चुपके से एक भृत्य को बुलाकर उसे पत्र सौप दिया और कहा कि इसे शीघ्रातिशीघ्र द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण के पास पहुँचा कर उत्तर लाओ, उचित पुरस्कार दिया जायेगा । दूत द्वारिका की ओर प्रस्थान कर गया । पत्र प्राप्तकर श्रीकृष्ण ने बलराम को दिखाया और पूछा - "आप का जो मत हो वही किया जाय ।" " रुक्मणि विपत्ति में फसी है । इस पत्र द्वारा वह आपकी शरण आ गई है । उसकी रक्षा करना हमारा कर्त्तव्य है ।" 1 जो बलराम जी का उत्तर सुनकर श्रीकृष्ण को बहुत हर्ष हुआ । क्योंकि उत्तर उनके विचारों के अनुसार था। उन्होंने एक पत्र लिखकर दूत को दिया । जिसमें उन्होंने रुक्मणि को विश्वास दिलाया था कि चाहे
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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