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________________ ४६० जैन महाभारत marrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr यह सुनकर शिशुपाल हस पड़ा । बोला-"तो स्पष्ट क्यों नहीं कहती कि आप अपनी बहिन से मेरा विवाह कराना चाहती हैं इसी लिए कुन्दनपुर के लग्न को वापिस कराने की कोशिश कर रही हैं।" "नहीं तुम मुझे गलत समझने की भूल मत करो। मैं तुम्हारे हित मे ही कह रही हू । जब किसी विवाह में वृद्ध जनो की सहमति नहीं हो तो फिर वह विवाह सकटजनक भी हो सकता है और जान बूझ कर सकट मे तो वह पडे जिसका विवाह ही न होता हो" भाभी ने कहा। ___ पर शिशुपाल के गले से नीचे एक भी बात न उतरी । वह अपनी हठ पर अड़ा रहा । अन्त में भाभी बोली-"तुम अपनी हठ पर अड़े हो, अतः जो इच्छा हो करो, पर स्मरण रखा कि यह लग्न कभी सुखदायी न होगा, और अन्त में तुम्हें पश्चाताप करना पडेगा।" रुक्मणि की अपूर्व सूझ सरसत ने जाकर जब शिशपाल की स्वीकृति का सकाचार कुन्दनपुर सुनाया और बताया कि शिशपाल पूर्ण तैयारी के साथ आयेगा, तो रुक्म को बड़ी सान्त्वना मिली। उसने अपनी माता से मिलकर विवाह की तैयारियाँ करना आरम्भ कर दी। बारात के ठहरने, खाने पीने, स्वागत आदि का प्रबन्ध होने लगा, और धीरे धीरे यह बात सारे नगर में घूम गई कि राज कन्या रुक्मणि का विवाह शिशुपाल के साथ माघ शुक्ला अष्टमी के दिन होगा। शिशपाल के साथ थिवाह का निश्चय सुनकर रुक्मणि की धात्री को अपार दुख हुआ, वह एक बार घूमती घामती रुक्मणि के पास आ गई और बोली-वत्से ! बाल्यावस्था में एक बार तू मेरी गोद में सो रही थी कि अतिमुक्त नामक महा श्रमण आ गये, उन्होंने तुम्हें देखकर कहा था कि "यह यादवकुल कीरीट नीलाभ कृष्ण की रानी बनेगी" । मैंने सविनय उनसे उनकी पहिचान वारे में पूछा, तो उन्होने बताया कि "पश्चिमी समुद्र तट पर जो द्वारिकावती (पुरी) नामक • नगरी बसायेगा वही कृष्ण होगा।' ___ जब से मुझे पूर्ण विश्वास था कि तेरे पति द्वारिकाधीश कृष्ण होंगे किन्तु यहाँ कुछ और ही रग ढंग है । चन्देरी पति शिशुपाल के साथ
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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