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________________ अर्जुन के प्रति ईया ३७५ श्रामीय समझ बैठा पीर उसने अपने को पूर्णतया उनका बना दिया। चर प्रश्य धामा अर्जुन ने चिढ़ने लगा। इसका फारश यर था किया. मममनापार्जुन उमके स्थान को दीन रहा है। कट मोचन लगा कि पिता जी (दागाचा) का अजुन पर विशेष प्रन । जा विधा अर्जुन को मिलाते हैं यह मुझे नहीं । उनका प्रेम अर्जुन पर अधिक 'ग्रौर गुरु पर कम है । कुशल द्रोणाचार्य समझ गए कि प्रश्चस्यामा पं. मन मईयां उत्पन्न है। गई है। ___दिन 'अश्वत्थामा उदास बैठा था। दोणाचार्ग में पूर लिया "पंटा । तुम उदास दिखाई देते ह।। क्या कारण है।" __ "पिता जी ! क्या 'प्रापको मेरी दानी का फार जात नी ? "प्रवरवल्यामा ने कहा, 'पाप पक्षात फर ग, ई में प्रापका पुत्र पर पाप मुन पर घाम नहीं दर्माते जो अर्जुन पर दिखाते हैं। उसे बडे पार शिक्षा देते है विभिन्न विद्याए उने निवाते हैं. मेरे माय माधारमा गिरना व्यवहार करते है । यद्यपि में प्रापका उत्तराधिकारी नापि याप मेरी बदलना फरत है । मैं भाना 'प्रजुन में फिम पार में फम र पाप मुझे भी उसा परिधम में विणा मिनाया पर ना अजुन फे समान हो जाऊ। पर 'प्रापकी उपेक्षा न में ' पन में पीदे गरा या 'प्रापको मुक में इतना प्रेम नही जितना प्रत्येक पिला पं। अपने पुत्र संदोता ?"
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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