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________________ ३७४ जैन महाभारत A ROJAUHAN अहकारी है। किसी दूसरे को बदते ही नहीं । अब देखो तुम जैसे बलिष्ट और बुद्धिमान व्यक्ति के सामने इन पांचों में कोई भी तो नहीं ठहर सकता । पर अपनी चापलूसी से अर्जुन ने गुरुदेव का मन मोह लिया है और तुम से सदा ही कुढ़ता रहता है। यह पांचो भाई तुम्हे रथवान का पुत्र कहते रहते हैं और नीच समझते हैं। तुम्हारा सदा अपमान करते रहते हैं। पर मै तो समझता हूँ कि व्यक्ति किसी परिवार में जन्म लेने से नीच अथवा उच्च नहीं होता। यह तो व्यक्ति के गुण होते हैं जो उसे उच्च अथवा नीच बनाते हैं । तुम चाहे किसी की गोद में भी पले हा पर तुम्हारे गुण तो राजकुमारों के समान हैं। अतएव मैं तो तुम्हारा हृदय से आदर करता हूँ। मेरे हृदय मे तुमने अपना वह स्थान बना लिया है जो मेरे किसी भाई ने भी प्राप्त नहीं किया। मैं तो तुम्हारे गुणों से इतना प्रभावित हुआ हूं कि आवश्यकता पड़े तो तुम्हारे लिए प्राण तक भी दे सकता हूँ" दुर्योधन की मीठी बातें सुनकर कर्ण सोचने लगा-"दुर्योधन बड़ा ही सहानुभूति शील राजकुमार है । उसके विचार उच्च हैं। वह गुण ग्राहक है । इसके विपरीत पाण्डव जो प्रकट में मुझ से कोई वैरभख नहीं रखते पर वे इतनी आत्मीयता नहीं दर्शाते । सम्भव है मेरे पीछे मेरा अनादर भी करते हों। दुर्योधन का स्नेह सराहनीय है।" वह प्रकट रूप में बोला--- "दुर्योधन कुमार | आपकी सहानुभूति के लिए धन्यवाद । आप वास्तव मे उच्च विचारों के राजकुमार हैं आप में आत्मीयता है । मैं आपके व्यवहार से बहुत प्रभावित हुआ हूं। आप यदि मेरे लिए प्राण तक दे सकते हैं तो विश्वास रखिए मैं भी आपके लिए प्राण दे सकता हूँ।' इस प्रकार कर्ण दुर्योधन के कपट जाल में फस गया । उन दोनों की मित्रता घनिष्ट हो गई । पर दुर्योधन के भाव शुद्ध नहीं थे वह तो किसी स्वार्थ वश मित्रता दर्शा रहा था । किन्तु कर्ण उसे अपना
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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