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________________ हरिवश की उत्पत्ति पश्चातांप के फल स्वरूप वे राजा-रानी दूसरे भव मे हरिवर्प क्षेत्र मे युगलिये वने । जैसा कि हरि वर्ष क्षेत्र के युगलियों का नियम है कि इस क्षेत्र के नाम पर ही उनका नाम हो अतः उनका नाम भी हरि और हरिणी पडा । यह युगलियायोनी मात्र भोग योनी है इसमें किसी प्रकार का दुःख या कष्ट नहीं होता । युगलिये अपना मारा समय आनन्द पूर्वक ही व्यतीत करते हैं। ये युगलिये नरक में नहीं जाते। क्योंकि ये ऐसे अशुभ कर्म करते ही नहीं, जिन के कारण इन्हे नरक म जाना पडे ।। उवर स्वर्ग मे वीरक देव के हृदय मे सहसा एक दिन फिर से प्रतिशोध की अग्नि वधक उठी। वह सोचने लगा कि "मेरी जिस कुलटा वनमाला ने मुझे धोखा देकर सुमुख का बरण किया और उसी के साथ रगरलिया मनाती रही, उसका जीव इस भव मे न जाने कहा किस रूप में आया हुआ है।' यह सोचते ही उस वीरक देव को अवधिज्ञान के वल सं ज्ञात हो गया कि सुमुख और वनमाला इस भव मे हरिवर्प क्षत्र में युगालिया के रूप मे सुखोपभोग कर रहे हैं। उनके भोग विलासों की लीला को इस दूसरे जन्म मे भी उसी प्रकार चलते देख वीरक देव की ईर्ष्याग्नि मे घृत की आहुति पड़ गई, उसके नेत्र लाल हो गये और होठ मारे क्रोध के फडकने लग पडे । उसने मन ही मन कहा___ अहा । इस दुष्ट सुमुख ने अपनी राजविभूति का घमंड कर मेरा अपमान किया था, मेरी परमप्रिया वनमाला हर ली थो, अब भी यह दुष्ट उसी के साथ सुखोपभोग करता दिखाई दे रहा है । इस दुष्ट ने मेरा वडा अपकार किया है, मैं इस समय प्रत्येक प्रकार से समर्थ हूँ यदि मैंन इस दुष्ट का दूना अपकार न किया तो मेरी इस प्रभुता को धिक्कार है। इस प्रकार सोचते-सोचते उसने सुमुख से पूर्वभव के अपमान का बदला चुकाने की ठान ली और वह तत्काल सूर्य के समान जाज्वल्यमान रूप धारण कर स्वर्ग से हरिवर्प क्षेत्र में उतर आया । ___ उस समय वे दोनो उम परम सुन्दर हरिवर्प क्षेत्र मे क्रीडा कर रहे थे कि वह किल्विष देव सीधा उनके पास आ पहुचा। वह उन्हें देखते ही अपनी दुष्टतर माया से तत्काल क्रोध में भर उनकी इस प्रकार भर्त्सना करने लगा
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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