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________________ जैन महाभारत अरे परस्त्री के हरण करने वाले सुमुख | क्या तुझे इमं ममय अपना वीरक वैरी का स्मरण है ? री व्यभिचारिणी वनमाला | क्या तुझे भी अपने पूर्वभव की याद है ? देखो, मैं तप के प्रभाव से प्रथम स्वर्ग मे देव हुआ हूँ और तुम युगलिये बने हो तुम ने पूर्व भव मे मुझे बहुत दुःख दिया था, इसलिये अब मै तुम्हे भी दुःख देने आया हू । इसीलिए किसी ने कहा है दूसरों को दुःख देकर सौरव्य कोई पाता नहीं, पैर में चुभते ही काटा टूट जाता है वहीं । देव के ऐसे भयकर वचनो को सुनकर दोनो युगलिए सहसा हक्कबक्के से रह गये उसके जाज्वल्यमान असह्य उग्र तेजोयुक्त रूप को देखकर तथा उसकी इस भयकर विनाशक वाणी को सुनकर द ना के शरीर थर-थर कापने लगे। इससे पहले कि उनके मुव च्द निकले, उस देव ने तत्काल उन्हे वैसे ही अपनी भुजात्रा में उठा लिया जैसे कि गरुड़ छोटे-बड़े सो को अपनी चौच मे वर दबाचता है । देखते ही देखते वह देव इन दोनो को हरिवर्ष क्षत्र स ठाकर आकाश मार्ग में उड गया । युगल दम्पति की सुधबुध जाती रही, उन्ह युछ भी होश न था कि वे कहा है और कहां ले जाये जा रहे है। उ में साचा कि यदि मैं इन्हें तत्काल मार डालु गा तो.ये मरकर स्वर्ग में चल जायंगे, पर मैं तो चाहता हूँ ये दुष्ट नारकीय यातनायें भुगत, इसलिए एसा उपाय करू कि ये इसी भव में मद्य-मास सेवन आदि ५स क्रूर कृत्य करें कि जिन के फलस्वरूप इन्हे नरक मे जाना पडे । इसलिए मार भय के निःसज्ञ हुए युगल को उस देव ने दक्षिण भरत क्षत्र म ला पटका । उस समय दक्षिण भारत की राजधानी चम्पापुरी नामक नगरी थी। देवयोग से उसी समय उस नगरी का शासक स्वर्ग सिवार गया। । चम्पापुरी के राजा के कोई सन्तान न थी, इसलिये वह नगरी अनाथ यंत हो गई थी। देव ने अपने मायाजाल से शत्रु का और भी अधिक पतन करने के विचार से वहां आकाशवाणी करके और उसे वहां का शासक बना दिया । इस प्रकार हरि हरणी को चम्पापुरी के शामक के रूप में भरत क्षेत्र में रहना पड़ा। उसी देव की प्रेरणा से रि और हरिणी के हृदय मे तामसी प्रवृत्तिया घर कर गई और वं मद्य-मांस आदि नरक मे ले जाने वाले पदार्थों का सेवन करने में कोई सकोच न करने लगे।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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