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________________ जैन महाभारत राजा रानी इस प्रकार अपने अपने किये पर इस प्रकार मन ही मन पश्चाताप करने लगे क्योंकि प्रकृति से जिनके स्वभाव शुद्ध होते है उन की अशुभ प्रकृति के उदय प्रायः थोड़ी देर के लिए ही हुआ करता है और समय आने पर वे उस अशुभ प्रकृति के उदय के लिए पश्चाताप या आलोचना कर उससे मुक्त होने का उपाय भी करने लगते है। पश्चाताप या आलोचना मे कर्ममल को निराकरण करने की वडी भारी शक्ति है । भूल तो मनुष्य से हो ही जाती है पर उस भूल को स्वीकार कर लेने और उसके लिए प्रायश्चित लेने के लिए उद्यत हो जाने से कर्ममल धुल जाते हैं इसीलिए एक गुरु से इस सम्बन्ध में प्रश्न किया गया है कि(१) शिष्य ने पूछा-हे पूज्य | #आत्मनिंदा से जीव को क्या फल मिलता है ? गुरु ने कहा-हे भद्र | आत्मदोषो की आलोचना करने से पश्चात्तारूपी भट्ठी सुलगती है और वह पश्चात्ताप की भट्ठी मे समस्त दोषों को डाल कर वैराग्य प्राप्त करता है । ऐसा विरक्त जीव अपूर्वकरण की श्रेणी (क्षपकश्रेणी) प्राप्त करता है और क्षपकश्रेणी प्राप्त करने वाला जीव शीघ्र ही मोहनीय कर्म का नाश करता है। (२) शिष्य ने पूछा-हे पूज्य | गर्दा ( आत्मनिंदा ) करने से जीव को क्या फल मिलता है ? गुरु ने कहा-हे भद्र ! गर्दा करने से प्रात्यनम्रता की प्राप्ति होती है और ऐसा आत्मनम्र जीव, अप्रशस्त कर्मबधन के कारणभूत अशुभ योग से निवृत होकर शुभयोग को प्राप्त होता है। ऐसा प्रशस्त योगी पुरुष अणगार धर्म धारण करता है और और अणगारी होकर वह अनन्त आत्मघामक कर्मपर्यायो का समूल नाश करता है। इस प्रकार पश्चाताप कर रहे थे कि अचानक बिजली गिर पड़ी और उनकी मृत्यु हो गई। 'आत्मसाक्षिकी निदा, गुरुसाक्षिकी गर्यो ।' अर्थात् अपने आत्मा की साक्षी से पापो की निंदा-पश्चाताप करना आत्मनिंदा है और गुरु आदि के समक्ष अपने दोषो की आलोचना गर्दा है ।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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