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________________ हरिवश की उत्पत्ति ५ राज के दर्शन लाभ का सुअवसर प्राप्त हो गया। मुनिराज की दिव्य तेजोमण्डित भव्य - मुख मुद्रा को देख सेठ के हृदय में विरह शोक सताप के स्थान पर संतोष और वैराग्य के भावों ने स्थान बना लिया । मानवशरीर तथा सासारिक सम्बन्धों की नश्वरता का उसे भली भांति ज्ञान हो आया और मुनिराज के चरणों में गिर कर प्रार्थना करने लगा कि हे देव । कोई ऐसा उपाय बताइये जिस से मेरी शोक सतप्त आत्मा को स्थायी शाति प्राप्त हो सके ! वीरक के ऐसे करुणा भरे वचन सुनकर दयालु मुनि का हृदय दयार्द्र हो उठा और उसे दीक्षा देकर जीवढया के दिव्य मार्ग का अधिकारी बना दिया | इस प्रकार दीक्षित होकर मुनिवेष धारण कर वीरक ने काम व्यथा को खंड-खड कर देने वाली कठोर तपस्या के द्वारा अपने शरीर को छोड़कर देवलोक मे जाकर किल्विष देव के नाम से विख्यात हुए। एक समय वे अपनी खुली छत पर बैठे-बैठे आनन्द केलि मे मग्न थे कि इसी समय उनके सामने नीचे सडक पर वीरक वनमाला के विरह में व्याकुल होकर हा ' वनमाला हा ! वनमाला करता हुआ, बुरी तरह करुण क्रन्दन कर रहा था। वह कभी उसके विरह में पागलों की भांति सुधबुध खोकर न जाने क्या कुछ कहता जा रहा था । वीरक की ऐसी दशा देख तथा विलाप भरे वचन सुनकर वनमाला और सुमुख के हृदय मे सहसा पश्चाताप की भावना उद्बुद्ध हो उठी । वनमाला सोचने लगी कि मैंने क्षणिक वासनाओं के वशीभूत होकर यह क्या अनर्थ कर डाला, मुझ आभागिन के ऐसे दुष्कृत्य का न जाने क्या फल मिलेगा । यह मेरा पति मेरे ही कारण किस प्रकार दुःखित हो रहा है इसकी दुदशा का एकमात्र मैं ही कारण हू । उधर सुमुख के हृदय में भी ऐसे ही पश्चाताप के भाव उत्पन्न हो रहे थे वह भी सोचने लगा कि मैंने सासारिक इन्द्रियजन्यवासनासुख के वशीभूत होकर यह केसा घोर कर्म कर डाला । कामान्ध होकर मैं यह भी न सोच पाया कि जिस अनुचित कार्य से मेरी क्षणिक परितृप्ति होगी उसी कार्य से किसी दूसरे व्यक्ति (वीरक) का सर्वनाश ही हो जायेगा । अहो | मुझ से यह कैसी भयकर भूल हो गई है । * वीरक वनमाला के विरह में तडपता हुया अन्त में जगल में जाकर तापसतपस्वी वन गया और वह उमी वाल तप के प्रभाव से तीन पत्योपम की स्थिति वाला किल्विष नामक देव हुआ। ऐसा वसुदेव हिण्डो श्रादि ग्रन्थों में उल्लेख है - 1
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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