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________________ २०१ कनकवती परिणय __सूर्य के समान तेजस्वी तिलक था, वह उस तिलक को जान बूझ कर मैल में छुपाये रखती थी। इसलिए हरिमित्र को सन्देह हुआ कि दमयन्ती का वह निलक कहाँ चला गया यह कोई और तो नहीं है । इसी समय रानी ने उसके मस्तक को धो दिया, जिससे कि उसका तेजोमय तिलक फिर से दीप्त होने लगा। अब तो राजा रानी दोनो ने दमयन्ती का बहुत अधिक आदर सत्कार किया । हरिमित्र ने दो चार दिन वहाँ ठहर के पश्चात् महाराज ऋतुपर्ण से आज्ञा मॉगी कि हे देव । अब मुझे आज्ञा दीजिए मैं दमयन्ती को लेकर इसके माता-पिता के पास शीघ्रातिशीघ्र पहुच जाऊ। तब महाराज ने उन्हें सहर्ष विदा किया । अचलपुर से चलकर कुछ ही दिनों में वे लोग कुन्डिनपुर जा पहुचे । वहाँ महाराज भीमरथ और रानो पुष्पदन्ती उसे मिल कर बहुत प्रसन्न हुई, इस प्रकार दमयन्ती तो भटकती भटकती आखिर में अपने पिता के घर आ ही पहुंची । अब उसे यहाँ कोई किसी प्रकार का भय या कष्ट नहीं था, किन्तु महाराज नल का अभी तक कहीं कुछ पता नहीं था। बस एक इस चिन्ता के सिवाय दमयन्ती को और किसी प्रकार की कोई चिन्ता न रही। *पुनर्मिलन* ' उधर महाराज नल दमयन्ती को छोडकर कई वर्षों तक वन वन में भटकते रहे। एक दिन उन्होंने देखा कि जगल मे बडी भयकर आग लगी हुई है अत वे बडे उत्सुक होकर उस आग की ओर बढे ही थे कि उन्हें उस आग में घिरे हुए किसी मानव की चीत्कार सुनाई दी। वह कह रहा था-- __ हे इक्ष्वाकु कुल तिलक महाराज नल । हे क्षत्रीय अर्षभ मेरी रक्षा कीजिए । यद्यपि आप अकारण उपकारी है तो भी यदि आप मेरी रक्षा करेंगे तो मैं अवश्य कुछ आपका प्रत्युपकार कर सकू गा ।' ___ यह शब्द सुनते ही वे आगे बढे, और देखते क्या हैं कि वनलताओं के झुण्ड में एक भयकर सर्प पडा हुआ है और वही पकार पुकार कर अपनी प्राण रक्षा की दुहाई दे रहा है। सर्प की ऐसी कातर वाणी सुन नल ने साहस पूर्वक उस सॉप को आग मे से बाहर निकाल दिया । किन्तु आग से बाहर आते ही उसने नल के हाथ में बड़े जोर से डस लिया। सर्प के डस लगते ही महाराज नल का रग एक दम
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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