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________________ २१० जैन महाभारत काला और कुरूप हो गया, उनके बाल रुखे से और शरीर सहसा कुबड़ा बन गया । __ अपनी यह दशा देख नल बडे चिन्तित हुए । वे सोचने लगे ऐसे घृणित जीवन से तो मर जाना ही अच्छा है, इसलिए किसी मुनिराज की सेवा मे जाकर के दीक्षा ले लू। और तप करके समाधि मरण के द्वारा शरीर त्याग कर दू । वे ऐसा सोच ही रह थ कि वह सर्प एक दिव्य तेज पुञ्ज से देदीप्यमान देव बन गया और कहने लगा कि हे नल ! तुम्हे घबराने की आवश्यकता नहीं मैं तुम्हारा रिता निषध हू । मैंने तुम्हें राज्य देकर दोक्षा ग्रहण कर ली थी उमा के प्रभाव से देव लोक मे मै देव बन गया। वहां पर अवधि ज्ञान के बल से तुम्हारी यह दशा देख मैने सर्प का रूप धारण कर तुम्हे इन प्रकार कुरूप बना दिया है इससे तुम्हारा उपकार ही होगा । यह एक विल्व फल और मजूषा रत्न मैं तुम्हे देता हूं तुम इसे सम्भाल कर रखना । जब तुम अपने वास्तविक रूप को धारण करना चाहो तो इस फल को ताड डालना । इस मे से देव दुष्य वस्त्र और पिटारी में से रत्नाभूषण मिलेगे, उन्हे धारण करते ही तुम अपने वास्तविक रूप मे आ जाओगे। __ अपने पिता के ऐसे वचन सुन महाराज नल अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होने पूछा कि हे पिता जी इस समय दमयन्ती की क्या अवस्था है। बताने की कृपा कीजिए। ___तब देव शरीरधारी निषिव ने उत्तर दिया कि दमयन्ती की चिन्ता न करो, वह कुन्डिनपुर के मार्ग मे है ओर शोघ्र ही वहा पहुँच जायगी। तुम्हे भो इस प्रकार वन वन भटकने की आवश्यकता नहीं, तुम जहां भी जाना चाहो मै तुम्हें क्षण भर मे हुँचा सकता हूँ। इस पर नल ने उत्तर दिया मुझे 'सुसुमारपुर पहुंचा दीजिए।' फिर क्या था, क्षण भर मे नल सुसुमारपुर पहुँच गये । नल ने अभी नगर के बाहर उद्यान मे पांव रक्खा ही था कि वहा एक मदोन्मत्त हाथी बन्धन तुडाकर अनेक प्राणियों तथा उपवन के वृक्षों का विनाश करता हुआ दिखाई दिया। वह हाथी प्रचड तूफान के समान बड़े वेग से जिधर निकल जाता उधर ही सर्वनाश कर डालता। उसके इन विनाशक काण्ड को देखकर वहां के महाराज दधिपर्ण ने घाषणा
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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