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________________ कनकवती परिणय १६४ हमारे वेश विन्यास में ता त्रुटि नहीं है, जो हमारी ओर देखना ही नहीं चाहती। उसे इस प्रकार खोई हुई सी देख कर एक चतुर सखि ने कहा-हे राजकुमारी | इन उपस्थित राजाओं, महाराजाओं व राजकुमारों में से जिस पर तुम्हारा हृदय अनुरक्त हो । उसी के गल में जयमाला डालकर वरण कर लो। अब आर अधिक बिलम्ब लगा कर इन लोगों की उत्सुकता को अधिक न बढ़ाओ। कनकवती ने उदास स्वर में उत्तर दिया-सखि मैं जयमाला पहनाऊ किसे ? मैंने जिसे अपना हृदयेश्वर बनाया था वह मेरा प्राण वल्लभ तो द ढने पर भो दिखाई नहीं दे रहा, क्या करू, क्या नहीं करू कुछ समझ में नहीं आता। वह इस प्रकार कह ही रही थी कि उसके नेत्र अअपूर्ण हो गये, गला रुध गया और मन ही मन वह कहने लगी-हे । नियति तेरा स्वरूप भी विचित्र है, तूने ही ता पहले आशातोत सफलता की प्राप्ति के स्वप्न दिखाकर उसके साधन जुटाये और अब क्षण भर में उन सब आशाओं पर पानी फेर दिया । हा देव | यदि ऐसा भाषण सकट पार दुर्दिन दिखाना ही था तो पहले इतना सुख का आभास रूप प्रलाभन दिया ही क्यों था? हे विधन । न जाने मेरे भविष्य के गर्भ में क्या क्या छिपा हुआ है ।। ___कनकवती इस प्रकार देव को कोस रही थी कि अनायास ही स्त्री दृष्टि कुबेर पर जा पडी। उधर कुबेर ने भी कनकवती को देखकर भरी मुस्कान फेकी उनकी इस व्यग-मुस्कराहट को देखते ही हल समझ गई कि वसुदेव को स्वयवर मडप में न आने में न्ति र ही है। अत वह करवद्ध प्रार्थना करने लगी है । विगन के हृदय को विरह ज्वाला से अब अधिक न म न्त रे प्राणेश्वर को शीघ्र ही प्रकट कर मेरी उत्सुकता ग ये । ___ कनकवती के सत्य युक्त एव उत्सकता बनने में उन्नावर हसने लगे । और उन्हाने वसदेव को झं-मन ही में अंगुली से निकाल ढने को कहा । कुबेर की न ई बन्द ही अगुली से निकाल दी । अशा तिन ई र बनदिक स्वरूप प्रकट हो गया। वरदेव के अनेक उनकी हर
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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