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________________ १६८ । जैन महाभारत की उपस्थिति के कारण वह सभाभवन ऐसा प्रतीत होता था कि मानो स्वर्ग का एक कोना पृथ्वी पर उतर आया। कुबेर और वसुदेव के आसन ग्रहण कर लेने के अनन्त अन्यान्य राजकुमारो व राजाओं ने भी अपने-अपने आसन ग्रहण किये । इसी समय कुबेर ने वसुदेव को एक कुबेर कान्ता नामक मणि से युक्त अंगूठी पहनने को दे दी। वह अंगूठी अर्जुन स्वर्ण की बनी हुई थी और उस पर कुबेर का नाम अकित था उसे धारण करते ही वसुदेव भी सर्वथा कुबेर ही के समान दिखाई देने लगे। सभा में एक साथ दो कुबेरों को देख कर उपस्थित लोगो के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वे कहने लगे कि कुबेर तो दो रूप धारण करके यहाँ पधारे हैं। अब तो जिसे देखो उसी के मुख से यही चर्चा सुनाई दे रही थी। इधर यथा समय बहुमूल्य अनुपम वस्त्रार्लकारों से सुसज्जित अपने सुकोमल कर कमलों में कमनीय कुसुम माला लिये हुए सखियो से परिवृत हुई कनकवती ने राज हंसिनी के समान मनोहर मन्दगति से सभा मण्डल में प्रवेश किया। उसके पदार्पण करते ही चारों ओर से एक साथ ही सहस्त्रों दृष्टियाँ उस पर जा पड़ी । कनकवती ने भी एक बार ऑख उठा कर चारा ओर देखा, उसकी समुत्सुक दृष्टि उस राजा वसुदेव कुमार को ढूढ़ रही थी। किन्तु आज स्वयवर सभा मे उसे वे कहीं दिखाई न दे रहे थे । इसलिए वह बार बार अपने चचल नेत्रों से सभा के एक कोने से दूसरे कोने तक उन्हें कहीं ढूढ़ निकालने का प्रयत्न करने लगी । पर वे कहीं भी दिखाई न दिये। वसदेव को सभा मे अनुपस्थित देख कनकवती के बदन चन्द्र पर उदासी की काली घटाए छाने लगीं। वह बार बार सोचती कि वसुदेव क्यों नहीं आये । कहीं उन्हे आने मे बिलम्ब तो नहीं हो गया। मार्ग में अघटित घटना तो नहीं घट गई। किसी देव या गन्धर्व आदि ने तो उनके साथ छल नहीं किया । क्या कारण है कि वसुदेव आज यहाँ दिखाई नहीं देते । इस प्रकार विविध शंकाओं से घिरी और उनका कुछ भी समाधान न पाती हुई कनकवती अपनी शून्य दृष्टि से, वसुदेव को ढढ़ निकालने का निष्फल प्रयत्न करने लगी। राजा लोग भी उसके मुख मण्डल पर व्याप्त निराशा की रेखाओ को देख, मन ही .. मन सोचने लगे कि राजकुमारी ऐसी अन्यमनस्का, क्यों दिखाई देती है । इम तो अत्यन्त उत्साहित और प्रसन्न होना चाहिये था । कहीं कोई
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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