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________________ १६ जैन महाभारत धन, वैभव और ऐश्वर्य किसी से छुपा हुआ नहीं है । तुम्हारे समक्ष उपस्थित यह जन उन्हीं का सदेशवाहक है। मैं तुम से उनकी ओर से प्रार्थना करने आया हूँ। वे तुम्हें अपनी हृदयेश्वरी बना कर अपने आप को कृतकृत्य समझेंगे वे तुम्हें अपनी पटरानी का सम्मान प्रदान करेगे उस अवस्था मे शतश देवांगनाएँ सदा तुम्हारी सेवा सुश्रषा में तत्पर रहेगी। मानवी होकर भी तुम इस प्रकार देवी पद को प्राप्त कर लोगी। अत' तुम्हे और अधिक सोच-विचार न कर स्वय वर सभा में कुबेर ही का वरण करना चाहिये । कनकवती ने उपेक्षा पूर्वक उत्तर दिया हे सुभग । संसार में कुबेर को कौन नहीं जानता वे पूज्य हैं, आदरणीय हैं अत मैं उन्हें हाथ जोड़ कर प्रणाम करती हूँ किन्तु फिर भी उनका और मेरा सम्बन्ध कैसा, मनुष्य और देवता का विवाह आज तक न हुआ है और न हो सकता है । इस लिये मुझे तो ज्ञात होता है कि तुम को जो सन्देश देने के लिये भेजा है वह या तो हंसो की बात है या केवल मनोरजन मात्र है उसमें वास्तविकता कभी नहीं हो सकती क्योंकि यह सर्वथा अनुचित और अस्वाभाविक है। इस पर वसुदेव ने उस को समझाया कि भद्रे जो कुछ तुम ने कहा वह तो सत्य है पर तुम्हे यह भी स्मरण रखना चाहिए कि देवताओ कि बात न मानने से मनुष्य पर बड़ी भयकर विपत्तियां आ सकती हैं। दमयन्ती को कैसे कैसे कप्टो का सामना करना पड़ा यह तो तुम जानती ही हो । कनकवती ने बड़ी विनय के साथ उत्तर दिया-कुबेर का नाम सुनते ही पूर्वक जन्म के किसी सम्बन्ध विशेष के कारण मेरे हृदय में अनेक प्रकार की भावनाएँ घर करने लगती हैं । मेरा चित्त उनके लिये बहुत उत्सुक और आनन्दित हो उठता है; किन्तु मेरा और उनका विवाह कदापि उचित नहीं कहा जा सकता । अरिहन्त भगवान् ने भी कहा है कि मनुष्य का और देवता का सम्बन्ध कदापि योग्य नहीं क्योंकि मनुष्य के दुर्गन्ध युक्त औदारिक शरीर की गन्ध सुधाधारी देवगण सहन करने में असमर्थ होते हैं । अतः मेरा और उनका सम्बन्ध सर्वथा असम्भव है। । वसुदेव ने फिर भी अनेक प्रकार की तर्क और युक्तियों से कनकवती को समझाने की पूरी पूरी चेष्टा की पर जब उस पर कोई
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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