SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२ जैन महाभारत बतलाया था कि मदनवेगा का विवाह हरिवंशोत्त्पन्न वसुदेव कुमार के साथ होगा । वे विद्या की साधना करते हुए रात्रि के समय चण्डवेग के कन्धे पर गिरेगे और उनके गिरते ही चण्डवेग की विद्या सिद्ध हो जायगी। इसलिए पिता जी ने उसकी मॉग पर जब कुछ ध्यान नहीं दिया तो निशिखर ने रुष्ट हो हमारे नगर पर आक्रमण कर दिया। वह हमारे पिता जी को पकड़ कर ले गया है, इस समय हमारे पिताजी उस दुष्ट त्रिशिखर के बन्धन में पड़े हुए है। आपने विवाह के समय हमारी बहिन मदनवेगा को एक वर मॉगने को कहा था १ तदनुसार आप हमारे पिता जी को कैद से छुडवाने मे हमारी सहायता कीजिये । हम लोग आपके इस महान् उपकार को सदा स्मरण रखेंगे।' इस पर वसुदेव ने सहर्ष उनकी सहायता करना स्वीकार करते हुए कहा कि मेरे योग्य जो भी कार्य होगा मै सहर्ष करूगा । आप मुझे बतायें कि मैं आपकी किस प्रकार सहायता कर सकता हूँ। यह सुन दधिमुख ने अनेक,दिव्य शस्त्रास्त्र वसुदेव के सामने रखते हुए कहा हमारे वंश के मूल पुरुष नमि थे उनके पुत्र पुलस्त्य तथा उसी वंश में मेघनाद हुए । मेघनाद पर प्रसन्न होकर सुभ्रम चक्री ने उन्हें दो श्रेणियां तथा ब्राह्म और आग्नेय आदिक शस्त्र प्रदान किये थे,मेरे पिता विद्य द्वग विभिषण ही के वंशज हैं इसलिये वे सब शस्त्रात्र वंशानुक्रम से हमारे कुल में चले आ रहे है । अब हमारे शत्रु को पराजय करने के लिये आप इन शस्त्रों को स्वीकार कीजिये । क्योंकि हम लोगों के लिये तो ये सर्वथा व्यर्थ हैं । वसुदेव ने वे सब शस्त्र सहर्ष स्वीकार कर लिये किन्तु जब तक उन्हें सिद्ध न कर लिया जाय तब तक उनका उपयोग नहीं हो सकता था इसलिये उन्होंने बड़ी कठोर साधना द्वारा उन शस्त्रास्त्रों को शीघ्र ही सिद्ध कर लिया। __ इधर इसी समय यह ज्ञात होने पर कि मदनवेगा का विवाह किसी भूचर मनुष्य से कर दिया है त्रिशिखर ने अमृतधारा नगर पर आक्रमण कर दिया । उधर वसुदेव तो पहिले ही युद्ध के लिये तैयार बैठे थे इसलिये वे चण्ड विद्याधर के दिये हुए रथ पर बैठ कवच धारण कर नानाविध शस्त्रों से सुसज्जित हो युद्ध के लिये प्रस्थानोद्यत हो गये । दधिमुख उनका सारथी बनकर . रथ संचालन करने लगा । दण्डवेग और चण्डवेग ने भी घोडों पर नोट --एक दिन मदनवेगां ने स्वय वसुदेव को प्रसन्न कर वर मागा था।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy