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________________ मदनवेगा परिणय तथा अन्य चेष्टाओं द्वारा साधक के मन को विचलित करने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु इन बातों की कुछ परवाह न कर अपने ध्यान ही में रहते हुए मौन भाव से तप ग्रहण करना चाहिये । एक दिन रात को इस प्रकार साधना करने के पश्चात् मैं तुम्हारे पास आऊगा और पुरश्चर्ण की समाप्ति पर तुम्हें आकाशगामी विद्या की प्राप्ति हो जायगी। इस प्रकार समझा कर वह विद्याधर वहा से विदा हो गया। सध्या समय नूपुर और मेखलाओं के श्रुति मधुर शब्दों से समस्त वातावरण को मुखरित करती हुई उल्काओं के समान अपनी दिव्य कान्ति से सारे प्रदेश को जगमगाती अपने मन मोहक हाव भावों से मन को मोहित करती हुई एक सुन्दरी वहां आ पहुँची। उसे देख वसुदेव बडे विस्मित हुए। वे सोचने लगे कि यह कोई साक्षात् सिद्धि है या बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से सुशोभित कोई देवता है अथवा चन्द्रलेखा के समान कान्तिवाली साक्षात् विघ्न मूर्ति है । जिसकी सूचना गुरु ने मुझ को पहिले ही दे दी थी। देखते ही देखते वह उन्हें वहां से उठा कर एक ऐसे पर्वत शिखर पर ले गई जहां पर उगी हुई सब औषधिया अपने दिव्य प्रकाश से जगमगा रही थीं, वहाँ उन्हें पुष्पशयन नामक उद्यान में पुष्पभार से विनम्र अशोक वृक्ष के नीचे एक सपाट शिला पर बैठाकर तथा घबराओं नहीं ऐसा कहकर वहाँ से चली गई। थोडी देर बाद दो १ सुन्दर युवको ने आकर उन्हें प्रणाम करते हुए कहा हम दधिमुख और चण्डवेग नामक दोनों भाई हैं, हमारे उपाध्याय भी क्षण भर में ही आने वाले हैं। इतने में उनका २ उपाध्याय दण्डवेग भी वहाँ आ पहुचा । वे लोग वसुदेव को वहाँ से अपने नगर मे ले गये और दूसरे दिन अपनी वहिन मदनवेगा का विवाह कर दिया। इसके बाद वसुदेव ने वहां कुछ समय बड़े आनन्द से बिताया । एक दिन दधिमुख ने उन्हें बताया कि दिवस तिलक नामक नगर में त्रिशिखर नामक राजा राज करता है । उसके सूपर्क नामक एक पुत्र है। त्रिशिखर ने अपने पुत्र के पास मदनवेगा के विवाह का प्रस्ताव रखा था, किन्तु पिता जी ने उसे अस्वीकार कर दिया। क्योंकि किसी चारण मुनि ने पिता जी को १ तीन युवको ने २ दडवेग उपाध्याय नही. वल्कि द्वितीय भाई था । श्रिाप्टिाला
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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