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________________ WAVANNNNNA ~ ~ मदनवेगा परिणय १६३ सवारी कर अपनी-अपनी सेना के साथ युद्ध के लिये प्रस्थान कर दिया। - युद्वारभ होने के पूर्व अपनी पहले की विजय के मद में उन्मत विशिखर के योद्धा चण्डवेग आदि को ललकारते हुए कहने लगे कि हमारे शरणागतवत्तसल महाराज को प्रणाम कर उनकी दासता स्वीकार कर लो अन्यथा यहीं युद्ध में मारे जाओगे। इस पर दण्डवंग ने उत्तर दिया व्यर्थ में डोगें क्यों हांकते हो यदि कुछ सामर्थ्य है तो हमारे सामन आकर दा दा हाय क्या नहीं देखते । बस फिर क्या था दोनों आर स युद्ध क नगाड़े बज उठे ओर घनघोर युद्ध प्रारम्भ हो गया । त्रिशिखर ने अन्धकारास्त्र छाड़ा जिससे चारों आर देखते-देखते अधेरा छा गया किन्तु वसुदेव ने बात की बात में उस अस्त्र का प्रभाव नष्ट कर फिर से दिन का प्रकारा प्रकट कर दिया । अब तो त्रिशिखर मारे क्रोध के पागबबूला हा उठा। उसकी बाण वर्षा से सारा नभामण्डल आच्छादित हो गया। उसने वसुदेव को ललकारते हुए कहा अरे तुच्छ मानव मैं तुझे खूब पहिचानता हूँ,अपने आपको बचा सकता है तो बचा। यह कहकर त्रिशिखर ने कनक शक्ति आदि अनेक शस्त्र उन पर फेंकें। इधर वसुदेव भी अपने शस्त्रों के द्वारा तत्काल उसके सब शस्त्रास्त्रों को माग में ही काट डालते जब उसके शस्त्रास्त्र व्यर्थ हो गये तो वसुदेव ने उसके हृदय में एक ऐसा अमोघ बाण मारा कि वह धडाम से पृथ्वी पर जा गिरा। इस प्रकार युद्ध में विजय प्राप्त कर वसुदेव ने अपने श्वसुर के वधन काट डाले। अब वे वहीं पर आनन्दपूर्वक रहने लगे। कुछ समय उपरान्त मदनवेगा की कोख से एक सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुश्रा जिसका नाम अनाधष्टि रखा गया । वसुदेव के रूप और गुणों पर समस्त विद्याधर और विद्याधरिनियां मोहित हो गई थीं । वे जिधर भी निकल जाते सब लोग उन्हें अपलक नेत्रों से देखते रह जाते । मदतवेगा भी तन-मन से उन्हें प्रसन्न रखने का प्रयत्न करती। . एक दिन वसुदेव के मुख से सहसा निकल पडा कि, "हे वेगवती आज तो तुम अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होती हो " यह सुनते ही मदनवेगा क्रोध में भरकर बोली यदि आपके हृदय पर किसी अन्य सुन्दरी का चित्र अंकित है तो आप व्यर्थ में मेरे मुख पर मेरी चापलूसी क्यों किया करते हैं ? वसुदेव ने अपनी भूल स्वीकार करते हुए कहा कि-प्रिये मेरे मन में इस समय
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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