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________________ वसुदेव का गृहत्याग ७१ ध्यान रहता है, प्रत्येक कार्य मे वे उन्हीं के नाम की माला सी जपती रहती हैं, यहा तक कि मालिनों से शाक आदि खरीदती हुई भी वरवस यही पूछ बैठती हैं कि वसुदेव कुमार क्या भाव है। इस पर वेचारी भोली भाली मालिने उनका मुंह ताकती ही रह जाती है। उनकी दशा का वर्णन करते करते तो बडे बड़े ग्रन्थ ही समाप्त हो जायें। श्रीमान् तो सभी के हृदय की बात समझने वाले हैं इमलिए और अधिक कुछ न कहते हुए इतना ही निवेदन कर देना चाहते हैं। तव महाराज ने इस प्रतिनिधि मडल को बड़े प्यार भरे शब्दों में श्राश्वासन दिया कि यद्यपि यह किसी के वश की बात नहीं है, किसी के हृदय पर तो न आपका, मेरा अन्य किसी का भी कोई अधिकार है। फिर भी राजा होने के नाते मैं यथाशक्ति इस समस्या को सुलझाने के लिए कुछ न कुछ प्रयत्न अवश्य करू गा । आप निश्चिन्त रहिए। ___ महाराज से इस प्रकार आश्वासन पाकर शिष्टमडल प्रसन्नता पूर्वक वापिस लौट गया। वसुदेव का वन्दी होनाउधर महारज समुद्रविजय ने एक दिन वसुदेव कुमार को बुलाकर कहा कि वत्स आपणों, वनों व उपवनों में भ्रमण करते रहने के कारण वर्षा आतप और लूवों के प्रभाव से तुम्हारे चॉद से सुन्दर रूप की कान्ति कुछ मद पडती जा रही है और स्वास्थ्य दुर्वल होता जा रहा है, इसलिए अच्छा है कि तुम अपने राजमहलों के उपवन में ही भ्रमण कर लिया करो। यहीं तुम्हारे कलाओं के अभ्यास और मनोरजन की सब प्रकार की समुचित व्यवस्था कर दी जायगी। भोले भाले और निष्कपट हृदय वसुदेव कुमार ने अपने बड़े भाई के इस सत् परामर्श को सिर माथे स्वीकार कर लिया और वे उस दिन से राज महलो में ही रहने लगे। राज महल और राजोपवन को छोड़ वे कभी कहीं बाहर न आते जाते। उन्हें इस बात का तो आभास भी न था कि उन पर किसी प्रकार का कभी कोई प्रतिवन्ध भी हो सकता है। शिष्टमंडल के आने का रहस्योद्घाटनइस प्रकार की व्यवस्था को अभी कुछ ही समय वीता होगा कि
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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