SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७० जैन महाभारत आपके हृदय मे जो भी भाव हों निःसकोच होकर व्यक्त कर दीजिए। हम यथाशक्ति और यथामति आपकी समस्या को सुलझाने के लिए यथोचित सहायता व भरसक प्रयत्न करेगे। ____तब मुखिया ने इस प्रकार आत्मभाव व्यक्त करना प्रारम्भ किया। हे देव । शरद् ऋतु का निर्मल चन्द्रमा किसे प्रिय नहीं होता । अपनी निर्मल धवल ज्योत्सना से चराचर मात्र को आह्लादित करना उसका स्वभाव ही है। उसमें किसी प्रकार के दोष के लवलेश की आशका करना भी अपने ही अन्तःकरण के कालुष्य को प्रकट करना है, पर फिर भी यदि उस शान्त स्निग्ध निर्मल चन्द्र को देखकर किसी के मन मे विचार भाव उत्पन्न हो जाय, तो उसमे चन्द्रमा का क्या दोष है। किन्तु किया क्या जाय, चन्द्रमा अपनी पूर्ण किरणो से प्रशान्तसागर के हृदय मे एक हलचल सी मचा देता है । उसके कुछ न करते हुए भी उसके रूप सौन्दर्य के कारण ही अतल सागर के अन्तरतम में एक भयकर तूफान सा उठ खड़ा होता है । और उसकी बेला अपनी मर्यादा की परवाह न कर ज्वारभाटे के रूप में उथल-पुथल मचाने लगती है । इस प्रकार निर्दोष होते हुए भी प्रशान्त सागर के हृदय में एक भयकर तूफान खडा कर देने का सारा दायित्व चाँद पर ही आता है। यदि चन्द्रमा अपनी षोड्ष कलाओ से पृथ्वी पर परिपूर्ण रूपसुधा की वर्षा न करे तो सागर का हृदय इस प्रकार आलोडित क्यो हो। _ अब आप ही बताइये कि उस शुभ्र निर्मल चन्द्र को क्या कहा जाय, उसके लिए कहने को कुछ न होते हुए भी बहुत कुछ है। इसी विपम समस्या के समाधान के लिए हम श्री चरणों में उपस्थित हुए हैं। हमारे हाट भावों से अवगत होकर अब आप स्वय यथोचित विचार कीजिए। इससे अधिक हमारे निवेदन करने की कुछ आवश्यकता नहीं है। " शिष्टमडल के प्रमुख की यह वक्तृता सुन महाराज ने कहा, हमारी * ' समझ में कुछ नहीं आया । इस सारी पहेली से आपका क्या प्रयोजन है कुत्र स्पष्टता पूर्वक समझाये तो बात बने । तब दूसरे सभ्य ने इस प्रकार निवेदन किया हे कृपा सिन्धु । समस्त पुर और जनपद की ललनाश्री के हृदय समुद्रों में वसुदेव कुमार के रूप और गुण चन्द्रमा के महश तूफान सा खड़ा कर देते हैं। उन्हे आठों पहर उन्हीं का
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy